शनिवार, 14 मार्च 2015

आतंकवादी घर के (लघुकथा )


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प्रवीण थी प्रतिभा में वह , लेकिन लडकी होना आडें आ गया उसके ।
नियत समय पर विदा कर दी गई वो बाबूल के घर से ।
ससुराल संभाला , पूरा घर बार संभाला उसने अच्छे से ।
तारीफें मिलती थी उसे , उसके समर्पण की । वह मिशाल थी आदर्श गृहणी की ।

सब जिम्मेदारी से परिपूर्ण होकर स्वयं को देखा तो खाली पाया ।
सब अपनी अपनी राह पकड़ चलते बने ।  रह गई थी वो बिलकुल अकेली ।

अचानक बैठे हुए एक दिन उसकी सोई हुई विलुप्त  प्रतिभा ने करवटें बदली ।

घर में स्थापित घर की नारी बाहर की रूख जरा सा मोडी ।
तहलका मच गया । घर में ही उसके लिए कई आतंकवादी पैदा हो गये  थे ।

कान्ता राॅय
भोपाल

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