शनिवार, 14 मार्च 2015

होलिका की परिक्रमा (लघुकथा )


आज दिल के कई तह में छुपी हुई रिश्ते  को फिर से  देखा । बहुत ही बदरंगा सा लगा ।
रिश्तों पर जमी फफूंद को वह चंद खुशनुमा यादों की कोलिन से साफ करने जो बैठी तो बीते दिनों की यादों में खो सी गई ।
उस दिन होलिका पूजन के लिए बस तैयार ही हो रही थी कि पीछे से क्या सुझी उसे कि वह रंग लगा बैठा मुझे ।
" होली तो कल है फिर आज यह रंग क्युं ?  क्योंकि मै तुमको तुम्हारे  उनसे पहले  रंगना चाहता था । " --- वह कह रहा था और मेरे  " वो " पीछे खडे़ सब सुन रहे  थे ।
फिर वहीं हुआ जो आम तौर पर सारे पति करते है । ना मै उनकी हुई ना ही उसकी ।
कई साल बीते होलिका दहन की यह रात मेरे खुशियों की दहन की रात बन गई ।
उन्होंने ट्रांसफर करवा लिया अपना और मै यहीं रह गई अपनी स्कूल की नौकरी के साथ अकेले ।
" कौन है !! " अचानक दो हाथों ने पीछे से रंग दिया था मुझे । मुड़ कर देखा तो फफूंद पडा़ रिश्ता अपनी पूरी चमक के साथ मुस्कुरा रहा था ।
कान्ता राॅय
भोपाल

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