शनिवार, 14 मार्च 2015

फितरत (लघुकथा )

पार्क में  रोज  शाम को  इसी कोने में बैठना प्रकाश को बहुत भाता था । जाने क्या लगाव था उनका पार्क के इस हिस्से से । प्रतिदिन दो घंटे सुबह और दो घंटे शाम को यहाँ आ बैठते थे । 

शादी से पहले मालती से भी रोज यहीं मिला करते थे । जिंदगी भर स्कूल की नौकरी करते हुए भी एक दिन यहाँ आना ना छूटा  था । मालती तो आधी राह की मुसाफिर निकली ,  साथ छोड़ ईश्वर से यारी कर ली थी । लेकिन प्रकाश यादों के सहारे यहीं  जडवत  रह गये ।

कई महीनों से एक बिल को देखते हुए  जैसे ममता जाग जाती थी ।
माली कई बार  लोगों के साथ आकर   समझा जाता था कि   --" साहब यहाँ मत  बैठा किजिए । इस बिल में साँप का निवास है ।  इसे निकाल कर मार देंगे । क्या पता  ,  यहाँ रहेगा तो कहीं किसी दिन किसी को डस ही लेगा  ।
साहब , डँसना फितरत है इसकी । "

"तुम सब अपने पूर्वाग्रह से ग्रसित हो इसको मारने आये हो !  जब कोई इसे  नही छेडेगा तो यह भी किसी को कुछ नहीं कहेगा । जाओ इसे भी जीने दो यहाँ  । "- प्रकाश ने उनको वापस जाने पर विवश कर दिया ।

कई बार लोगों के  कहने के उपरांत भी प्रकाश ने उस बिल पर  किसी को हाथ नही लगाने दिया और उस बिल पर ऐसे नजर रखते मानो संरक्षक हो उस बिल के ।

आज शाम को उसी पार्क के कोनें में प्रकाश अपने द्वारा संरक्षित  साँप के काटने पर मृत पाये गये । साँप ने अपनी फितरत दिखा दिया था ।

कान्ता राॅय
भोपाल

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