शनिवार, 14 मार्च 2015

नेकी साहित्य की (लघुकथा )

" यह क्या कलम घिसती रहती हो दिन भर ?  इससे कुछ भी नहीं मिलना है । कुछ एकाउंट्स के किताब पलट लो तो कहीं घर चलाने लायक बन सकोगी  । "-- फिर से वही बातें सुनना बहुत ही मुश्किल हो चला था ।

कुछ जबाव ना देकर लिखती रहती थी , जो मन में आता रहता था । घर में हर जगह  कागज के पुलिंदे ही नजर आते थे ।
उसकी जिद्द ऐसी थी  कि कलम न छुट पाई  । कुछ प्रविष्टियाँ भेजती रहती थी ऐसे ,  मानो नेकी कर दरिया में डाल रही हो जैसे ।

कुछ ही सालों में वह राष्ट्रीय मंच से साहित्य जगत को संबोधित कर रही थी ।
दरिया ने पलट कर सारा कर्ज़ अदा कर दिया था ।

कान्ता राॅय
भोपाल

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