सोमवार, 24 अगस्त 2015

मेरी उससे यह पहली मुलाकात थी

आज छत पर बहुत दिनों बाद आई थी ऐसा लगा जैसे पहली बार मै मुस्काई थी सूरज कुछ कह रहा था मुझसे मैने सूरज को पहली बार कहते सुना पिछले बार कब देखा था उसको कुछ याद नहीं आता सुना है सुबह शाम मेरी खिड़की से झाँका करता है वो क्यों ऐसा लगा , मेरी उससे यह पहली मुलाकात थी आज से पहले मेरी उससे कब हुई बात थी कानों में कहते कहते गालों को वो छू गया उसकी इस हरकत से जाने क्युं परेशान थी वो तो आया था सबसे मिलने क्युं मुझसे ही उसकी सरोकार थी मेरी उससे आज यह पहली मुलाकात थी


कान्ता राॅय भोपाल

मैै गढ लूंगी तुम्हें

मेरा मन कहता है मै गढ लूंगी तुम्हें तुम मिट्टी कोमल से आकार दूंगी तुम्हें मेरा मन कहता है मै गढ लूंगी तुम्हें तुम रूखे हो सख्त नहीं तुम अग्नि हो जल नहीं मै तप लूंगी तुम्हें मेरा मन कहता है मै गढ लूंगी तुम्हें छोड़ दोगे स्वंय को तुम तुम ना रह पाओगे शक्ल मेरी तेरे चेहरे में घोल दूंगी तुम्हें मेरा मन कहता है मै गढ लूंगी तुम्हें कोमल हृदय के तुम प्रीतम घुल जाओगे मुझमें ऐसे चंदन पानी पानी चंदन प्रीत की रीत है मन बंधन तर लूंगी तुम्हें मेरा मन कहता है मै गढ लूंगी तुम्हें तुम सागर मै नदी सरीखी तुममें तर लूंगी मै चाँद तुम गगन के मेरे अर्पण चाँदनी तुम्हें मेरा दिल कहता है मै गढ लूंगी तुम्हें

कान्ता राॅय भोपाल

चिंहुका मौन ----- ( हाइकु कविता )

रक्त गुलाल देशप्रेम की आग चिहुँका मौन --------------- चिहुका मौन सत्ता परिवर्तन संघर्ष शुरू --------------- दलित वर्ग नेता का हथियार चिहुँका मौन --------------- धानी चूनर सपनों का संसार चिहूका मौन --------------- नारी प्रतिष्ठा हम प्रतिपादक चिंहुका मौन ---------------- अति सुंदर चिहुंका मौन हुआ संदर्भ नया --------------- समाजगत मिथ्या आदर्शवाद चिहुका मौन ------------------- जीवन भर अश्रु जल लेकर चिहुका मौन ------------------ चिहुका मौन लिए नीरवता को पथ निहारे ------------------- सावन आया श्रावणी कही नही चिहुका मौन ------------------- पाखंडी साधू ईश्वर के वेश में चिहुका मौन ------------------ पति पतित चिहुका मौन धरे दुर्बल कौन -------------------- अंधविश्वास देवदासी की प्रथा चिहुँका मौन ------------------- सत्यजीत रे नोबल पुरस्कार चिहुँका मौन -------------------- नगर वधू अभिशप्त जीवन चिहुँका मौन ------------------ साहित्य रस हाईकू नई विद्या चिहुँका मौन -------------------- कान्ता राॅय भोपाल

विदाई तुम्हारी

आज तुम्हारी विदाई थी मेरे घर से आँखों के साथ दिल भी बहुत रोया था जाते हुए देर तक निहारती रही थी मै तुमको उम्मीद थी कि तुम जाने से इंकार कर दोगी अचानक से और मै गले से लगा कर रख लुंगी तुम्हें सदा के लिये मै निराश हुई तुमने पलट कर नहीं देखा एक बार भी लौटना मेरा मेरे ही घर में दुबारा तेरे बिना मुनासिब ना हुआ मैने भी छोड़ दी वो गलियाँ उन चौबारे को जहाँ तुम नहीं वहाँ अब क्या काम मेरा


कान्ता राॅय भोपाल

जडों की तलाश

_______________ एक वृक्ष के शाखे हम बढते गये बहुत ऊपर तक फुनगीयों से फुनगियाँ निकलती गई बहुत दूर पहुँच गये ऊपर तक हम होश आया अचानक देखा जडों से बहुत दूर निकल आये थे हम लौट कर मिट्टी तक पहुँचने की अब दरकार आन पडी थी अपनी ही टहनियों से सरकते हुए वापस नीचे उतरना था उतरते वक्त सारे छूटे हुए अपने मेरी ओर ही ताकते नजर आये देर तो हुई लौटने में इसका अफसोस अब उम्र भर साथ ही रहेगा लेकिन उनका क्या जो इंतजार में मेरे मिट्टी में मिल गये

कान्ता राॅय भोपाल

अकेली सिर्फ मै नही

मेरा दिल बार बार क्युं ऐसा कहता हैै कि अकेली सिर्फ मै ही नही तुम भी हो गये हो मेरे बगैर तुम नही समझते खुद अपने ही मन की बात कैसे समझोगे तुम्हारा मन तो मेरे पास ही है कब से तुम मारे मारे फिरते हो ढुढने के लिए तुम भूल गये कि एक दिन बातों बातों में मुझे ही सौंप गये थे तुम अपने मन को तुम्हारा इस कदर मचल जाना बातों बातों में मुझे बहुत याद आते हो तुमसे इतना प्यार कर लिया कि नफ़रत करना मेरे वश में नही करते हो सदा मुझे परेशान मेरे यादों में आकर तुम अब तुम ही बताओ कि तुम्हारी यादों का मै क्या करूं कहाँ छोड़ आऊँ कि तुम लौट कर कभी ना आओ कौन सी वह जगह है जहाँ तुमने मेरी यादों को छोडा है मुझ पर आखिरी यह एहसान करना मुझे भी उस जगह का पता देते जाना छोड़ आऊँ मै भी वहीं तुम्हारी यादों को ले जाकर

कान्ता राॅय भोपाल

संवेदनाएँ बिखरी सी

तुम्हारा ही वास था मुझमें तुम्हारा ही नाम था मुझमें नाम में छुपा कर रखा था साँसो का साँस था मुझमें _________________ तुम गये सब गया सपने अपने सब गये रह गई धुमिल काया काया बस छाया भये _______________ वीणा के तार टुटे रोये सप्तसुर राग राग विराग भये हृदय में राजे आग ______________ अश्रुधारा बहे निरंतर वेग सम्भारी ना जाय नदियाँ सागर भई जल थल धरा हो जाय

कान्ता राॅय भोपाल

गर आँखें न होती

कितना अच्छा होता गर आँखें न होती न दिखता दोहरा चेहरा ना रंग रूप की चर्चा होती संवेदनाएँ रहती सच्ची वाली छुअन में अपनापन होता कितना अच्छा होता गर आँखें ना होती कानो में स्वर सच्चा सदा गुंजन गुंजन करती रहती जिव्हा का स्वाद चखन भी होता रसना सच्चा वाला झुठी मुठी बातें ना होती कितना अच्छा होता गर आँखें ना होती छल छलावा दुनियाभर का ना समझी की बातें ना होती कितना अच्छा होता गर आँखें ना होती खुश्बू से महकती इंसानियत इंसानो में ऐसी खुश्बू होती महक महक संसार महकता दाग दगा की बातें ना होती कितना अच्छा होता गर आँखें न होती

कान्ता राॅय भोपाल

कलम तु बता

___________ कलम तु बता दे मै क्या लिखू पत्ता लिखू कि बूटा लिखू कि लिखू प्रकृति का उपहार कहीं आस पलती पलकों पर कही आँसुओं की धार कहो कलम क्या मै आँसू लिखू या लिखू जगत व्यवहार वियोग लिखू सजनी का या लिखू साजन का प्यार वफा बेवफाई का किस्सा लिखू या लिखू फिर वही जगत व्यवहार ऐ कलम तु ही बता दे क्या लिखू कागज पर आज कोरा कागज मुझे बुलाये देखो कैसे यह फरफराये कलम को मेरे ये तडपाये कहो कैसे आज क्या लिखू कैसे लिखू जगत व्यवहार नदीयों का कल कल बहना लिखू या झर झर झरनों का झरना मनोरम झील में कश्तियों को या चिनारों के पत्तों का गिरना कहो कलम क्या चिंगारी लिखू या चिंता में पिता का जलना बुढिया की खाँसी में तिरस्कृत जीवन का सपना या लिखू यौवन की सपनीली आँखों का सपना सपनों का बह जाना लिखू या ममता का बिक जाना कहो कलम बहुत है लिखने को किसको लिखू आज मै अपना अपने का अपना कहना पल भर में हुआ सपना लिखू उन सपनो को जो कभी हुआ ना अपना लोकतंत्र जनतंत्र सब झोल झाल पोल खोल राजनीति ऐजेंडा किसका कैसा झंडा कलम क्या तु डर जायेगी कलम क्या तु मर जायेगी कलम जब तु डर जायेगी मान लो तु मर जायेगी लिख दो जो मन कहे लिख दो जो समय कहे देश जन कल्याण लिख दो प्राणों का किसमें प्राण लिख दो मिट्टी यह बलिदान लिख दो लिख दो समस्त व्यवहार लिख दो जगत व्यवहार

कान्ता राॅय भोपाल

चाँद जल रहा है

देखो फिर चाँद जल रहा है फिर से तप रही है रात सितारों का क्या कसूर इसमे बिन जले जल रहे है आप आसमान में छाया कहर रो रही है चाँदनी देखो फिर चाँद जल रहा है फिर से तप रही है रात अक्षर अक्षर जले है मन विहराती बात आ जाओ कि अब नही कटती तुम बिन रात देखो फिर चाँद जल रहा है फिर से तप रही है रात सब जतन कर लिए सकूँ मिला ना कहीं तुम्हारे लिए बैठे रहे उसी राह तकते बाट देखो फिर चाँद जल रहा है फिर से तप रही है रात तुम भ्रम नहीं मेरे तुम सत्य अटल हो जिंदगी बिताऊँ अब अपने इसी भ्रम के साथ देखो फिर चाँद जल रहा है फिर से तप रही है रात

कान्ता राॅय भोपाल

तुम शैशव सहचरी से सखा थे

तुम शैशव सहचरी से सखा थे तुम से ही मेरा जीवन था तुम दैव्य दिव्य पुरूष मेरे थे तुम से ही मेरा सब कुछ था तुम चंद्र मै किरण थी तुम सुख मै स्वप्न सरीखी रसाल वृक्ष तुम बनकर मेरे मै तुम्हारी नदी तरंगिनी तुम जादूगर मेरे थे मै तुम्हारी माया थी योगी तुमने योग चलाया मै तो तेरी ही छाया थी मेरे सरल हृदय का तुम उपहार थे ईश्वर का दिया कोई वरदान तुम गये सब गया रह गया व्याकुल मन मेरा

कान्ता राॅय

हृदय मेरा चंचल हुआ

_________________ हृदय मेरा चंचल हुआ प्रेम पिया संग अचल हुआ सिंधु लहरों का डेरा मन में नीरवता का देहावसान हुआ हृदय मेरा चंचल हुआ .... तुम ही जीवन तत्व मेरे हो तुम सागर मन नदी हुआ तुम पत्थर सरीखे प्रिय मेरा कातर मन द्रवित हुआ हृदय मेरा चंचल हुआ ..... जीवन की यह मर्म वेदना स्वप्न टुट कर बिखड गया अमर दीप प्रीतम नाम की यह पुण्य प्रीत तेरे नाम हुआ हृदय मेरा चंचल हुआ .....

कान्ता राॅय भोपाल

रक्त के कण कण में बसा तुम्हारा नाम

अब नहीं आऊँगी फिर कभी खुद को ही खोने के लिए लेकिन साँसो का क्या उसपर जो तेरा नाम लिखा है वह ना पेंसिल से लिखा है ना ही चाॅक से ना ही कोई गोदना ही गोदवाया था मैने वह तो जाने कैसे रक्त के कण कण में बस गया था धमनियों में दौडा करता है पुकारता हुआ नाम तेरा बहुत शोर करता है यह मै निस्तेज हो उठती हूँ इसके आगे मै क्या करू मेरे मन को कैसे निकालू कैसे मिटाऊँ रक्त के कण कण में से तुम्हारा नाम

कान्ता राॅय भोपाल

चंद पल खुद में सिमटे हुए

------------------------------ चलते फिरते जाने कितने शुभ कामनाएँ बटोरी होली की लेकिन फिर भी जाने कैसे शुभ शुभ तो था कहीं नही फीके मुस्कानों को होठों पर सजाया हमनें लेकिन दिल के अंदर अभी तक होलिका दहन जारी था ------------------------------------------ बरसों सीचें पेड़ कुम्हलाई मिट्टी ने चाहत ठुकराई बीजों में सृजन की चाहत अपनी चाहत पर अकुलाई ------------------------------------------- आजकल छंद उदास है उसे किस बात की आस है शब्द गढ गढ रूप धरे है फिर भी मुक्तक की प्यास है ----------------------------------------------- पत्थरों से डर लगता है पत्थर बहुत ही पत्थर होते है पत्थरों जैसे इंसान सारे पथरीले सारे जहान होते है ---------------------------------------------- बहुत दिन हुए सपना नहीं देखा सपने में कोई अपना नहीं देखा देख लिया सारी दुनिया फिर भी दुनिया में कोई अपना नहीं देखा ------------------------------------------------ मन के राज बडे़ गहरे होते है इस पर सौ पहरे होते है इसकी चाहत इससे ना पूछो समंदर की जैसी लहरें होती है

कान्ता राॅय भोपाल

होली

होली बीत गई रीत गई सपने सारे मेरे साजन अंग ना लगे पी की आस को मन तरसे निराश हुए जग सारे रंग अबीर सब हुआ फीका कैसी होली कैसी हमजोली मुझसे जो साजन बिछुड़े तुम गये सपने गई गई सब सुनहरी धुप तुममें मै ऐसी खोयी बाकी रहा ना रूप तुममे ही मै रहती थी मुझमें तुम ही तुम थे खोये सागर से नदियाँ मिलती है जैसे मै मिलती पिया से ऐसे तड़प तडप मै रैन गुजारू तुम बिन जीवन जीयुँ कैसे तुम गये सपने गये गये सब सुनहरी धुप

कान्ता राॅय भोपाल

कोलकाता

तुम मेरी प्यारी कोलकाता कितनी खूबसूरत हो तुम तुमसे मुझे प्यार कितना मेरी साँसों में ख्यालों में तेरे सिवा कोई और ना उतरा देखे मैने कितने शहरों को देखे कितनी ही राजमहल तुम तो बस तुम्ही हो मेरी प्यारी कोलकाता तुम में बसी है विक्टोरिया की आत्मा खिदीरपूर डक का सम्मोहन ना पाया कहीं और कालीघाट की प्रांगण जैसा कहीं नहीं है ठौर वो पिकनिक के दिन होते थे दुर्गा पूजा की रातें दिवाली की फाटक स्ट्रीट की सुसज्जित काली पूजा यादों में वो काॅलेज स्ट्रीट की गलियाँ काॅफी हाऊस में बैठ कर की है कितनी रंगरलियाँ दोस्त दोस्ती की मिशाल है कोलकाता अड्डा मारने की सहूलियत और मिलेगी कहाँ वो आलूर चाॅप वो बेगून भाजा वो पूजा पंडाल का खिचूडी और आलूर दम कहाँ धर्मतल्ला के मैदान में फुचके वाले का स्वाद राममंदिर की पावभाजी और मिलेगी कहाँ झाल मुड़ी के झाल में खोया आज भी मेरा प्यार मानिक तल्ला सियाल्दा में ढुंढु बारम्बार तुम मेरी प्यारी कोलकाता तुमसे मुझे है प्यार

कान्ता राॅय भोपाल

याद

जाने क्या कहना था मुझे याद करते करते भूल गई एक तुम्हारे आने भर से सारे जमाने भूल गई पास आये बैठे पल भर के लिए कानों में मीठी सी एक नज्म सुना गये मै खोयी रही सुध बुध अपनी होश आते ही मैने खुद को अकेला पाया क्युं आये थे करीब तुम क्या तुम्हारा मकसद रहा मुझसे मेरा देना तो मुझे याद नहीं जाने क्या लेकर तुम चले गये खुद में कुछ खोती हुई तो पाती हूँ पर क्या खोया ये मालूम नहीं


कान्ता राॅय भोपाल

नींद से अटखेलियाँ

रात के सन्नाटे में गुँजती रहती है आँहे किसकी नींद में भरी सारी दुनिया सोती रहती है जाने क्यों मेरी ही आँखों से उसकी दुश्मनी कैसी नींद की मुझसे मेरी नींद से अटखेलियाँ रहती है लोग आते जाते हुए क्यों नही सुन पाते है क्यों मेरी ही कानों में ये अक्सर गुंजा करती है सारी दुनिया सन्नाटे में चैन से सोती है नींद की मुझसे मेरी नींद से अटखेलियाँ रहती है सहसा मुझे आज ऐसा लगा कहीं किसी दिल के कोने मे ये सिसकियां ये आँहे कहीं मेरे अंदर ही समाहित तो नही शायद इसलिए नींद की मुझसे मेरी नींद से अटखेलियाँ रहती है

कान्ता राॅय भोपाल

रविवार, 23 अगस्त 2015

जब याद तुम्हारी आती हैं ,

जब याद तुम्हारी आती हैं , थोड़ी सी मैं सो लेती हूँ । पलकों को मुंद मुंद कर , सिरहाने में रो लेती हूँ । बीते युँ पल पलछिन जैसे , तेरे ख्वाबों में जी लेती हूँ । कहना चाहती थी दिल की बातें , लेकिन होठों को मैं सी लेती हूँ । आँसुओं से यारी बरसों की , आँसुओं को मैं पी लेती हूँ ।

कांता राॅय

ऐ दोस्त शुक्रिया

ऐ दोस्त शुक्रिया तुझे तुम मुझे मेरे होने का एहसास देते हो कोई उम्मीद नहीं है तुम्हारा मुझसे मै जैसी भी हूँ तुम्हें उसी रूप में कबूल होती हूँ तुम्हारे लिए मुझे बदलना नहीं होता है मेरे आस्तित्व की पहचान तेरे साथ होने से ही होती है तुम्हारे साथ बिताया हर पल मेरा सबसे अच्छा पल होता है तुम्हारे साथ मेरी बचपन ,जवानी सब लौट आती है ऐ दोस्त शुक्रिया तुझे तुम मुझे मेरे होने का एहसास देते हो

मन पतंग

मन पतंग सी इठलाती हुई बलखाती हुई देखो कैसे सरसराती हुई अरे ,इधर गई अरे ...अरे , उधर गई हवा में लहरा - लहरा कैसे सरसराती हुई हवा के सहारे ऊपर और ऊपर जाती हुई ढील देते ही कहाँ से कहाँ पल भर में जाती हुई मन पतंग सा इठलाती हुई बलखाती हुई हवा के रूख बदलने से पहले मन की चरखी को उम्मीदों के धागों को लपेटते हुए कर लू वश में मन की पतंग को पतंग उडाना तो आया पर पेंच लडाना ना सीख पाई जहाँ देखी कई सारी पतंगें वहां डर के मारे मन की पतंग ना उड़ा पाई कभी कट जाने का डर कब कहाँ बैठ गई मन में कहीं सुनसान में खाली आसमान में दूर कहीं जाकर उडाऊँ अपनी पतंग को अपनी मन की पतंग को

आसमान को नापना ही होगा

जागी थी आज मै
चौंक उठी थी सहसा
कई कामों के संग ही
एक काम और रह गया
बहुत दिन हुए सोचे
आसमान नाप कर देखू
सुना है नील गगन
यह अति अनंत है
लेकिन अनंत में भी तो
छुपा हुआ होता एक अंत है
कहते है , किसी ने ना किया जो
मै बावरी भी ,ना करूं वो
छोड़ दू जिद
हो सकता है
कोई ना कर पाया जो
मै ही कर बैठू वो
क्यों बिना किये ऐसे छोड़ दू ,
अपने मंजिल का रास्ता मोड़ दू
उठा कर इंजी टेप मैने
पूरे होशोहवास में अपने
आसमान की ओर जो देखी
ये क्या !
मुझे तो बेहद सिमटी सी लगी
ये मेरी नजरों का धोखा हो
धोखा ही सही
उसका सिमटना मुझे भा गया
ऐसा लगा मानो
वो मुझे बुला रहा है
वो नील गगन
मुझे बुला रहा है
मै अब और ना ठहर पाई
पडोस से सीढ़ी उठा लाई
लगा दिया मैने आसमान में
और चढ़ बैठी
जा पहुँची चंदा तक
चंदा ने पूछा, तेरी बिंदिया कहाँ है ?
मैने कहा , उतार आई
बिंदिया भी , मंगलसूत्र भी
कहीं ये चमक जाती आसमान में !
कही ये उलझ जाती गरदन में !
मैने चुड़ी भी देखो उतार दी है
तारों की नजर ना पड़ जाये
आसमान को नापते हुए
पायल की छनछनाहट में
ध्यान टूट सकता है
आसमान की गिनती
इंची टेप नापने में
बहुत कुछ छूट सकता है
आसमान नापना हो जायेगा
मेरा लौटना भी हो जायेगा
पहन लूँगी सारे आभूषण
जो पिता ने रिश्तों में
जकड़ते हुए जड़ दिये थे मेरे अंगों में
सब पहन लूँगी
पहले यह काम तो कर लू
आसमान को जरा नाप लू
देखो मै नाप रही हूँ
नपते- नपते बढ़ रही हूँ
कितना सारा नापा है
और नापूँगी इसे
जब तक दम है
नापती ही रहूँगी
मेरे कदमों के निशां पर
चलने वालों के लिये
यह सिलसिला
देकर जाऊँगी
ये इंची टेप भी
दे जाऊँगी
मेरे मरने के बाद भी
आसमान नापने का
क्रम ना टूटे
यह अनवरत युँ ही
हाथों से हाथों तक
सदियों से सदियों तक
बढती रहे ,
वो भी अपनी
चुडी पायल बिछुए
बिंदी मंगलसूत्र
घर पर ही छोड़ जाये
आसमान को नापते वक्त
कोई उलझन ना होने पाये
देखना एक दिन
यह पूरा आसमान
नप जायेगा
मुझे यकीन हैै
एक दिन यह आसमान
नपा हुआ पाया जायेगा ।
कान्ता राॅय
भोपाल

गुरू वंदन अभिनंदन

तुम महान
अद्भुत स्वप्नद्रष्टा
स्वप्न कैसा
साकार किया है
व्यास प्रकाश
पुंज से अपने
जीवन का
महाकाव्य दिया है
तमस तम को
काट ज्ञान से
शुभ्र अमर
संदेश दिया है
तुम दूर दृष्टा हो
मै अज्ञानी
जन्म साकार
यह मूर्त दिया है
मस्तक पर तुम
चंदन हो स्वामी
यह हमने
स्वीकार किया है
तुम मेरे गुरू
गोविंद ब्रह्मज्ञानी
तुममें ईश्वर का
साक्षात्कार किया है


कान्ता राॅय
भोपाल

बदरिया कहाँ गई

सावन की बुनझीसी सखी है तन में लगाए आग .......
बदरिया कहाँ गई
गोर बदन कारी रे चुनरिया ,सर से सरकी आज ......
बदरिया कहाँ गई
सावन भादों रात अंहारी थर - थर काँपय शरीर ......
बदरिया कहाँ गई
दादूर मोर पपीहा बोले कहाँ गये रणवीर .....
बदरिया कहाँ गई
अमुआँ की डारी झूले नर- नारी मैं दहक अंगार ....
बदरिया कहाँ गई
उमड़ उमड़े नदी जल पोखर तन में रह गई प्यास ......
बदरिया कहाँ गई
सब सखी पहिरय हरीयर चुड़ी मोरा कंगना उदास ......
बदरिया कहाँ गई
सावन पिया आवन कह गये कैसे नैहर जाऊँ .....
बदरिया कहाँ गई
जलथल - जलथल पोखर उमड़े मन में पडे रे अकाल ....
बदरिया कहाँ गई
सुध बिसरे मेरी प्रीत की प्रीतम सौतन घर किये वास ......... बदरिया कहाँ गई
तरूण बयस मोरा पिया तेजल भीजल देह लगे आग ......
बदरिया कहाँ गई
जग हरीयाली सगरे छाई मोरा मन सुखमास .......
बदरिया कहाँ गई
बेली चमेली करे अठखेली बरखा झींसी फुहार ......
बदरिया कहाँ गई
पिया जब आये आस पुराये सावन हुआ मधुमास .....
बदरिया आ ही गई
कान्ता राॅय
भोपाल

.टुटी हुई छत / लघुकथा

मैली  सी .. कहीं -कही से उधडी   फ्राॅक को ठीक करती हुई   हाथ में  कुछ गोटी लिये खुद में ही खेलने की कोशिश में लगी हुई थी ।
माँ आज अपने  साथ ही ले आई  थी दिहाड़ी पर ।वो नहीं आना चाहती थी फिर भी  ।  उसका मन था कि वो अपने टिपरी पर ही खेले ।
वहां  टिपरी पर ...सब साथ ही खेलते थे  । आज भी सब खेल रहे होंगे ...!
बस मोना जो उसकी पक्की सहेली थी ....कई दिनों से गायब थी ।
सब कहते हैै कि उसके बाप ने उसे बेच दिया है ।
लेकिन मोना जाने से एक दिन पहले  उसे कह गई थी  कि बाप उसकी शादी कर रहा  है ।
शादी तो अच्छी बात होती है । यह बेचना कैसे हुआ भला .....!!!
मोना के जाने के बाद से ही उसके बापू  के तो  भाग जाग  गये थे ..ऐसा बापू   को कल  कहते सुना था ।
अब  उसका  बापू  भी कभी  उसकी  तरफ देखता है तो कभी अपने  टुटी हुई छत को ।

.मक्खन जैसा हाथ /लघुकथा

नई -नवेली दुल्हन सी वो आज भी लगती थी । आँखों में उसके जैसे शहद भरा हो  । पिता की गरीबी नें उसे उम्रदराज़ की पत्नी होने का अभिशाप  दिया था ।
उसका  रूप उसके ऊपर लगी समस्त बंदिशों का कारण बना  । उम्रदराज और  शक्की पति  की पत्नी अपने जीवन में कई समझौते करने के कारण कुंठित मन जीती है ।
आज चूड़ी वाले ने फिर से  आवाज लगाई तो उसका  दिल धक्क से धडक  गया । वो हमेशा की ही  तरह पर्दे की ओट से धीरे से  उसे पुकार बैठी , " ओ ,  चूड़ी वाले !  "
उसके मक्खन से  हाथों में  ...छुअन से होने वाले   सिहरन का  आभास देने वाले उस चूड़ी वाले का वो बडी़ शिद्दत से इंतजार किया  करती थी ।  
चुड़ीवाले ने हमेशा की तरह वहीं बाहर बैठ कर अपना  साजों सामान पसार लिया । उसे मालूम था कि इस मक्खन जैसे हाथ वाली को सिर्फ हरे रंग की चूड़ियाँ ही अच्छी  लगती  है ।
पसारे हुए सभी चूडियों में  धानी रंग की चूडियों  पर पर्दे  की ओट से मक्खन जैसी  हाथ वाली की अंगुलियों ने इशारा किया ।
कुछ ही पल  में  मक्खन जैसे  हाथ ....चुड़ी वाले के खुरदरे से  हाथ में ...देर तक   ...बेचैनी और बेख्याली के पल को ..जीते   रहे ।



कान्ता राॅय 

रक्तिम मंगलसूत्र / लघुकथा

आधी रात को चुपके  से सिरहाने के नीचे रखा सोने का मंगलसूत्र निकाल अपने हथेली पर  रख देखने लगा ।
खिड़की की झिडी  से आती चाँदनी में सोने का मंगलसूत्र झिलमिला  उठा  था  ।
आज पहली बार बडी हिम्मत करके बडी़ बिन्दी वाली औरत के गले से छीन कर भागा था । नहीं मालूम था कि कितना तेज दौड़ने से वो बच निकलेगा  ।
पकडे  जाने का  डर बना हुआ था ।  पसलियों और कंधों को मजबूती  से दृढ़ कर भाग रहा  था ।
घंटों दौड़ने के बाद भी वह रूकना नहीं चाहता था । पहली बार मंगलसूत्र जो  छीना था उसने ।
बडी़ सी बिंदी वाली के माँग में सिंदूर दमक रहा था । उसने बस माँग भर  देखा था सिंदूर से भरा हुआ  ,चेहरा नहीं देखा था  उसका । कैसा था उसका चेहरा ...!
सहसा  उसके  चेहरे  की परछाई में उसे  अपनी माँ का   सिंदूर भरा माँग   कौंध गया  ।
हाथ में रखे  मंगलसूत्र की कटोरियों  में अचानक माँग का सिंदूर भर गया ....वो सहम सा  गया ।  गीला गीला सा कुछ  रिसने लगा था मंगलसूत्र की कटोरियों से । उसके हाथ अब काँप रहे थे  ।
काली मोतियों की लड अचानक बढने  लगीं । बढते - बढते गले तक जा पहुँची  ।  बंधन कसने लगा था  । उसका दम अब  घुट रहा  था । चाँदनी भी  लाल हो गई  , उसी  माँग के सिंदूर सी  ।
सहसा  लाल रंग खून के रंग में बदलने लगा । 
हाथ में मंगलसूत्र लिए , बंधन से  जकड़े  गले के साथ ..घर से बाहर निकल कर वह  अब  फिर से दौड़ने लगा ...अपने पसलियों और कंधों को मजबूती  से दृढ़ करके ।
भागते - भागते पौ फट चुकी थी और वो पुलिस स्टेशन में  जाकर पस्त हो गिर पडा़ ।
सिंदूर में डूबा हुआ गीला चिपचिपा रक्तिम  मंगलसूत्र के बंधन से अब वह  आजाद हो  जेल की कोठरी में सुख की नींद ले रहा  था ।


कान्ता राॅय
भोपाल 

.महंगी मुस्कान / लघुकथा

" मुस्कान का व्यापारी हूँ । मुस्कान ही बेचता हूँ । कई प्रकार की मुस्कान है मेरे पास । "
" ये क्या बात हुई भला ..!!! मुस्कान का भी कोई व्यापार होता है  ! "
" होता है बाबू , आजकल मुस्कान भी बिकती है  । .... मुस्कान बडी ही महंगी चीज़ होती है । "
" अच्छा !! दिखाओ तो भला ... कितने प्रकार की मुस्कान है तुम्हारे पास ..??? "
" पहले जेब से पैसा निकालो , तुम्हारा जेब ही तय करेगा कि तुम पर कौन सा मुस्कान सुट करेगा । "
पढा लिखा बेरोजगार  भला क्या जेब में हाथ डालता .... दिहाड़ी करने लायक भी ना रहा था वो ।
महंगे मुस्कान  पर फीकी सी मायूस नजर  डाल वह आगे बढ़ गया ।


कान्ता राॅय 

मै दुर्गेश्वरी बोल रही हूँ

धूमिल होती भ्रांति सारी, गण-गणित मैं तोड़ रही हूँ
कलम डुबो कर नव दवात में, रूख समय का मोड़ रही हूँ
                          मैं दुर्गेश्वरी बोल रही हूँ ......
नई भोर की चादर फैली, जन-जीवन झकझोर रही हूँ
धधक रही संग्राम की ज्वाला, सागर सी हिल-होर रही हूँ
                              मैं दुर्गेश्वरी बोल रही हूँ ......
टूटे हृदय के कण-कण सारे, चुन-चुन सारे जोड़ रही हूँ
उद्वेलित मन अब सम्भारी, विषय-जगत अब छोड़ रही हूँ
                              मैं दुर्गेश्वरी बोल रही हूँ .....
मृदंग- मृदंग सा है मन मेरा, हरकाती सी शोर रही हूँ
क्षितिज रखी है मैने अंगुली, प्रत्यक्षित हिलकोर रहीं हूँ
                              मैं दुर्गेश्वरी बोल रही हूँ .........
रोक सको दम गर है तुममें, प्रलय-प्रकाश जोड़ रहीं हूँ
आत्म स्वरों को रौंदने वालें नर - नारायण तोड़ रहीं हूँ
                              मैं दुर्गेश्वरी बोल रही हूँ ........
शक्ति प्रकृति ढोना होगा, मन मृगछाल ओढ रही हूँ
पग-पग रक्तबीज राजे है, अस्त्र अक्षर बल जोर रही हूँ
                              मैं दुर्गेश्वरी बोल रही हूँ .........
सिंहासन डोले मनु रक्षक का, ठीकर सारे फोड़ रही हूँ
कोंपलें नई फूट रही है, निर्माण सेतु जोड़ रही हूँ
                          मैं दुर्गेश्वरी मै बोल रही हूँ .......
कान्ता राॅय
भोपाल

दिल आज उदास है

.आईये पास कि दिल आज उदास है
आपकी आस में दिल आज उदास है
याद का भँवर उडा ले चला इस कदर
थाम लीजिए मुझे दिल आज उदास है
हाथ में आपकी हैं छुअन सी लगीं
घटा को देख फिर दिल आज उदास है
दिल का धडक जाना आपके नाम से
बदलियों को देख दिल आज उदास है
छतरी में सिमटना एक ठंडी शाम में
यादों में तनहा दिल आज उदास है
रूहानी तलाश रूह की जैसी प्यास
ढुंढना आस पास दिल आज उदास है
पूछना मुझसे नाम मेरे यार का
सिसकती दास्तान दिल आज उदास है
सपनों की मंडियाँ बिकते हुए सपने
देख कर तमाशा दिल आज उदास है
चाँदनी की चकमक चाँद का चमकना
खनकती चुड़ियाँ दिल आज उदास है
ख्वाहिश तुम्हें क्यों पर्दा नशी की
कर दे फना इश्क दिल आज उदास है
रिश्तों को तोलना बाजार क्या है
रौंदना इस कदर दिल आज उदास है
यादों की बूंदें गीला सा मन मेरा
नमकीन बरसात दिल आज उदास है
सूनी सी डगर गाँव के चौपाल में
चुप्पी हवाओं की दिल आज उदास है
इंतजार पल पल क्यों करें दिल मेरा
मुड़कर ना देखना दिल आज उदास है
सतरंगी सपना पलना युँ बार बार
ऐतबार क्युं कर दिल आज उदास है



कान्ता राॅय
भोपाल

मै कंदराओं में जीती हूँ

मै नही अब कहीं भी
मुझे अब ढुंढना नही
इस गहन कंदरा में
खुद को समेट लिया है
बंद कर लिया है
अब किसी आहट का
इंतजार नही मुझे
सब पता मैने
अपना बदल लिया है
जहाँ मै पहले रहा करती थी
वहां मेरी शक्ल लिये
कोई तो जरूर रहता है
मै तो अब कंदराओं में ही रहती हूँ
गहन अंधेरे तले
निःशब्द होकर
मुझे मत ढुंढना
मै अब नहीं हूँ कहीं भी
एक उम्मीद
जीती थी मेरे अंदर
कल शाम को
उसकी लाश जलाई है मैने
अकेली ही उस लाश को
ढोई  थी  देर तक
मेरे कंधो मे अब तक दर्द बाकी हैै
वो लाश बडी भारी थी
पोषित थी वो बडे ही जतन से
कंधों के दर्द के साथ
मै कंदराओं में आ गई रहने
कंदराओं में मेरे साथ
कुछ झिंगुर भी रहते है
मुझे उनका रहना
अच्छा लगता है
वो काटने से पहले अपनी
पहचान जो बताते है
वो झिंगुर अपने से लगते है
चींक सी उठ जाती हैै
हूक सी उठ जाती है
जब वो काटती है
थोड़ी ही देर में झिंगुर
अपनी सी हो जाती है
अच्छा है ये झिंगुर
इसे वेश बदलना नही आता
वो दोहरे चेहरे भी नही जीता है
मुझे झिंगुर का काटना
सुख देता है
वो कहकर जो काटता है
झिंगुर अच्छे होते है
बस सोने नहीं देते चैन से
अपनी तीखी आवाज से
सीने को भेदते रहते है
झिंगुर अच्छे होते है
कंदराये अच्छी होती है
बस लाश अच्छे नही होते
वो कंधों को बहुत दुखाते है
लाश बिलकुल भी अच्छे नही होते है
देखो मै लाशों से छुपने आई हूँ
मै मौत से घबरा जाती हूँ
इसलिए मै अब
कंदराओं में रहने आई हूँ
इसलिए मै अब कंदराओं मे जीती हूँ
कान्ता राॅय
भोपाल
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फँस गया हूँ फंद में

जीवन के इस द्वंद में
फँस गया हूँ फंद में
काली गहरी मन कोठरियां
रेंग रही तन पर छिपकलियाँ
प्राण कहाँ स्पंद में ....
जीवन के इस द्वंद में
फँस गया हूँ फंद में
जग की उलझन कैसा बंधन
चल रे मनवा कर गठबंधन
जोगी परमानंद में ....
जीवन के इस द्वंद में
फँस गया हूँ फंद में
अभिमानी मन ये जग छूटा
दुनिया तजते भ्रम सब टूटा
चैन नहीं आनंद में .......
जीवन के इस द्वंद में
फँस गया हूँ फंद में
सौ पर्दों में चेहरा छुपाये
ज्ञान रोशनी कैसे पाये
फँसा मन मकरंद में .....
जीवन के इस द्वंद में
फँस गया हूँ फंद में


कान्ता राॅय
भोपाल

.शक -- एक कश्मकश / लघुकथा

तैयार होकर रीता आॅफिस के लिए निकलने ही वाली थी कि नील  कह उठे  कि आज  वो ही उसे आॅफिस छोड़ आयेंगें  ।
           उसे समझते देर ना लगी कि ,   आज फिर नील  पर  शक का  दौरा पड़ चुका  है  ।
         थे  तो वे  आधुनिक व्यक्तित्व के धनी ही । पत्नी का कामकाजी होना , उन की उदारता का परिचय था   ।  इसी  कारण वे  स्त्री विमर्श के प्रति   बेहद उदार मान  पूजे   जाते  थे  समाज  में ।
          
" मै चली जाऊँगी , आप  नाहक क्यों परेशान होते हो !   आपके  आॅफिस का भी तो यही वक्त है । " -  उसके आँखों में दुख से आँसू छलछला आये ।
           " क्यों  , तुम मुझे अपने आॅफिस के लोगों से दूर रखना  चाहती हो ..?   रात में विशाल का फोन आया था किसलिए ....? " --  नील   ने सहसा   चिल्लाकर कहा तो रीता की आँखों में  चिंगारी भर उठी  ।
         " तुम्हें शर्म आनी चाहिए , तुम मुझ पर फिर शक कर रहे हो ?   आज की  मीटिंग का  टाईम चेंज हुआ था  इसलिए फोन किया था बताने को  । "
            "चलो , आॅफिस पहुँचा दो मुझे । "-- बातों को तूल देने से अब  बचना चाहती थी वो  ।
          " नहीं , तुम चाहती हो कि मै दूर रहू तुम्हारे पुरूष मित्रों  से ...तो यही सही ,  रहने दो अब मै नहीं जाता तुम्हें पहुँचाने  । "
      " वो सहकर्मी है मेरे । "
  रीता का अब  दम घुटने लगा था । शक्की पति ... !  वो क्या करें ?
            नील  के बेइंतहा प्यार उसे आकंठ डुबो देता ,तो दूसरी ओर शक्की स्वभाव  उसके स्वाभिमान को अक्सर तार -तार कर जाता था।
            झगड़ा बढ़ने पर  वो तलाक़ के बारे में  भी सोचती  थी  ,  लेकिन पैर न उठते थे  कि बिछोह का गम  नील   सह नहीं पायेगें  .....  कहीं  कुछ हो गया उनको तो  ....!


कान्ता राॅय 

.अक्श /लघुकथा

रमेश चला गया ...बिना बताये युँ ही अचानक से । रागिनी  जिंदगी की तनहाईयों में  उसके साथ बीते पलों में उसे याद कर तलाशती रहती ।
याद है एक दिन कैसे रमेश पहली बार  उसके ब्युटी पार्लर में कुछ काॅस्मेटिक बेचने आया था ।
नही लेना  था कुछ भी , फिर भी कैसा सम्मोहन था उसमें कि जो ना चाहिए था वो सब भी खरीद लिया था उससे ।
उसका आना बढने लगा था और रागिनी का खुद को खोते जाना उसमें ।
प्यार परवान चढा ही था कि अचानक उसका आना बंद हो गया । वो दिवानी सी उसको ढुंढती फिरती यहाँ वहाँ ।
वो नहीं आया । कई महीने कई साल बीत गये ।
रागिनी अब लोगों में रमेश का चेहरा ढुंढने लगी थी ।
सोमेश को प्यार किया रमेश के रूप में क्योंकि उसके बाल बिलकुल रमेश की ही तरह थे घुंघराले से ।
राकेश के तीखे नक्श में भी रमेश की छाया थी , इसलिए राकेश से भी प्यार किया रागिनी ने जी भर के ।
मुकेश को पीछे से रमेश समझ कर ही आवाज दे बैठी थी एकदिन  ,  लेकिन वो भी एक  अक्श ही निकला था रमेश कहीं नही   ।
वो दिवानी सी झूमती रहती थी  कई रमेशों  के अक्श के साथ ।
कितने रमेश  आये और गये लेकिन रमेश था क्या सबमें निहित ?
सात वर्ष जवानी के बिता दिया ऐसे ही ।
आज अचानक  एक बडे उद्यमी के रूप में रमेश उसके सामने खड़ा था ।
वो कहता जा रहा था उसे अपनी जीत की कहानी और रागिनी तलाश रही थी एक और रमेश के अक्श को रमेश के ही  रूप में ।

कान्ता राॅय

.वो माँ विहीना / लघुकथा

बचपन में ही माँ का स्वर्गवास हो जाना और पिता का दुसरी शादी ना करने का निर्णय उस नन्हीं सी जान का  अपने  मामा के यहाँ पालन - पोषण का कारण बनी  ।
मामी के  सीने पर  मूंग दलने के समान  होने के बावजूद वो   पल - पल  बढती हुई ,उससे  पिंड छुडाने के आस अब जाकर पूरी  हो चुकी  थी  ।
शहर में पिता के पास पहुँचा दी गई ।
पिता को क्या मालूम बेटियाँ कैसे पाली जाती है  !
लेकिन बेटी को मालूम था कि बेटियाँ माँ ,बहन और बेटी कैसे बनती है इसलिए दिन सुहाने से हो चले थे पिता और पुत्री दोनों के ।
खुशियाँ दो दिन की  ही मेहमान ठहरी  ।  खुशियों के  पैरों में चक्कर होते है इसलिए वो टिक कर कहीं नहीं रहती है   ।
बिना माँ की जवान होती बेटी पर  अचानक रिश्तेदार से लेकर आस - पडोस वाले तक कोई बाप तो कोई माँ , भाई  की भूमिका के आड़ में  उस पर नजर रखने लगे ।
पिता को अपनी बेटी से अधिक दुसरे बेटी वालों के तजुर्बे पर अधिक भरोसा था ।
माँ की ममता तलाशती हुई उस माँ विहीना को सिर्फ शक , ताने और सौ प्रतिबंध मिले ।
वो मासूम आज भी पिता के अंगुलियों के सहारे उनके हथेलियों में .... संवेदनहीन   आँचलो के नीचे  माँ को तलाशती  फिरती चलती है  ।

कान्ता राॅय
भोपाल

.निरमलिया ( लघुकथा )

   
"मुझसे से शादी करना  चाहता  है रे तू ... ? " - सिर से जलावन का गठ्ठर उतारते हुए निरमलिया आज पूछ ही बैठी मोहना से ।
   
      "हाँ , तु मेरे  मन को पसंद है । जो कहेगी मै सब करूँगा तेरे लिए ....। " -- मैली सी धोती से पसीना पोंछते हुए झेंप कर मोहना का मुंह शर्म से लाल हो उठा था ।
    
      उसे यकीन ही नहीं हो रहा था कि निरमलिया सच में मान जायेगी ।
   
      "मुझे  तीन चीज़ तु दे सके जिंदगी भर के लिए   तो मै शादी करूंगी तुझसे । "
    "क्या ..क्या ...?"
    "गैस चुल्हा , मोबाइल और मुझे  एक फैसले का  हक  । "
    "ये सब क्या कह रही है रे निरमलिया ? "
    "देख रे मोहना , मुझे चुल्हे में स्वंय को नहीं झोंकना सुबह से शाम तक, इसलिए गैस चुल्हा चाहिए .... मुझे सबसे बात करने को मोबाइल चाहिए और मुझे बच्चे जनने की मशीन नहीं बनना.... इस वास्ते  मुझे  एक फैसले का हक   । "
    "बस इत्ती सी बात ..... देख मैने आज ही अरहर बेची है पच्चीस हजार की ... !
   
 कान्ता राॅय