रविवार, 23 अगस्त 2015

मै कंदराओं में जीती हूँ

मै नही अब कहीं भी
मुझे अब ढुंढना नही
इस गहन कंदरा में
खुद को समेट लिया है
बंद कर लिया है
अब किसी आहट का
इंतजार नही मुझे
सब पता मैने
अपना बदल लिया है
जहाँ मै पहले रहा करती थी
वहां मेरी शक्ल लिये
कोई तो जरूर रहता है
मै तो अब कंदराओं में ही रहती हूँ
गहन अंधेरे तले
निःशब्द होकर
मुझे मत ढुंढना
मै अब नहीं हूँ कहीं भी
एक उम्मीद
जीती थी मेरे अंदर
कल शाम को
उसकी लाश जलाई है मैने
अकेली ही उस लाश को
ढोई  थी  देर तक
मेरे कंधो मे अब तक दर्द बाकी हैै
वो लाश बडी भारी थी
पोषित थी वो बडे ही जतन से
कंधों के दर्द के साथ
मै कंदराओं में आ गई रहने
कंदराओं में मेरे साथ
कुछ झिंगुर भी रहते है
मुझे उनका रहना
अच्छा लगता है
वो काटने से पहले अपनी
पहचान जो बताते है
वो झिंगुर अपने से लगते है
चींक सी उठ जाती हैै
हूक सी उठ जाती है
जब वो काटती है
थोड़ी ही देर में झिंगुर
अपनी सी हो जाती है
अच्छा है ये झिंगुर
इसे वेश बदलना नही आता
वो दोहरे चेहरे भी नही जीता है
मुझे झिंगुर का काटना
सुख देता है
वो कहकर जो काटता है
झिंगुर अच्छे होते है
बस सोने नहीं देते चैन से
अपनी तीखी आवाज से
सीने को भेदते रहते है
झिंगुर अच्छे होते है
कंदराये अच्छी होती है
बस लाश अच्छे नही होते
वो कंधों को बहुत दुखाते है
लाश बिलकुल भी अच्छे नही होते है
देखो मै लाशों से छुपने आई हूँ
मै मौत से घबरा जाती हूँ
इसलिए मै अब
कंदराओं में रहने आई हूँ
इसलिए मै अब कंदराओं मे जीती हूँ
कान्ता राॅय
भोपाल
________________

कोई टिप्पणी नहीं :

एक टिप्पणी भेजें