रविवार, 23 अगस्त 2015

.वो माँ विहीना / लघुकथा

बचपन में ही माँ का स्वर्गवास हो जाना और पिता का दुसरी शादी ना करने का निर्णय उस नन्हीं सी जान का  अपने  मामा के यहाँ पालन - पोषण का कारण बनी  ।
मामी के  सीने पर  मूंग दलने के समान  होने के बावजूद वो   पल - पल  बढती हुई ,उससे  पिंड छुडाने के आस अब जाकर पूरी  हो चुकी  थी  ।
शहर में पिता के पास पहुँचा दी गई ।
पिता को क्या मालूम बेटियाँ कैसे पाली जाती है  !
लेकिन बेटी को मालूम था कि बेटियाँ माँ ,बहन और बेटी कैसे बनती है इसलिए दिन सुहाने से हो चले थे पिता और पुत्री दोनों के ।
खुशियाँ दो दिन की  ही मेहमान ठहरी  ।  खुशियों के  पैरों में चक्कर होते है इसलिए वो टिक कर कहीं नहीं रहती है   ।
बिना माँ की जवान होती बेटी पर  अचानक रिश्तेदार से लेकर आस - पडोस वाले तक कोई बाप तो कोई माँ , भाई  की भूमिका के आड़ में  उस पर नजर रखने लगे ।
पिता को अपनी बेटी से अधिक दुसरे बेटी वालों के तजुर्बे पर अधिक भरोसा था ।
माँ की ममता तलाशती हुई उस माँ विहीना को सिर्फ शक , ताने और सौ प्रतिबंध मिले ।
वो मासूम आज भी पिता के अंगुलियों के सहारे उनके हथेलियों में .... संवेदनहीन   आँचलो के नीचे  माँ को तलाशती  फिरती चलती है  ।

कान्ता राॅय
भोपाल

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