रविवार, 23 अगस्त 2015

मन पतंग

मन पतंग सी इठलाती हुई बलखाती हुई देखो कैसे सरसराती हुई अरे ,इधर गई अरे ...अरे , उधर गई हवा में लहरा - लहरा कैसे सरसराती हुई हवा के सहारे ऊपर और ऊपर जाती हुई ढील देते ही कहाँ से कहाँ पल भर में जाती हुई मन पतंग सा इठलाती हुई बलखाती हुई हवा के रूख बदलने से पहले मन की चरखी को उम्मीदों के धागों को लपेटते हुए कर लू वश में मन की पतंग को पतंग उडाना तो आया पर पेंच लडाना ना सीख पाई जहाँ देखी कई सारी पतंगें वहां डर के मारे मन की पतंग ना उड़ा पाई कभी कट जाने का डर कब कहाँ बैठ गई मन में कहीं सुनसान में खाली आसमान में दूर कहीं जाकर उडाऊँ अपनी पतंग को अपनी मन की पतंग को

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