रविवार, 23 अगस्त 2015

.अक्श /लघुकथा

रमेश चला गया ...बिना बताये युँ ही अचानक से । रागिनी  जिंदगी की तनहाईयों में  उसके साथ बीते पलों में उसे याद कर तलाशती रहती ।
याद है एक दिन कैसे रमेश पहली बार  उसके ब्युटी पार्लर में कुछ काॅस्मेटिक बेचने आया था ।
नही लेना  था कुछ भी , फिर भी कैसा सम्मोहन था उसमें कि जो ना चाहिए था वो सब भी खरीद लिया था उससे ।
उसका आना बढने लगा था और रागिनी का खुद को खोते जाना उसमें ।
प्यार परवान चढा ही था कि अचानक उसका आना बंद हो गया । वो दिवानी सी उसको ढुंढती फिरती यहाँ वहाँ ।
वो नहीं आया । कई महीने कई साल बीत गये ।
रागिनी अब लोगों में रमेश का चेहरा ढुंढने लगी थी ।
सोमेश को प्यार किया रमेश के रूप में क्योंकि उसके बाल बिलकुल रमेश की ही तरह थे घुंघराले से ।
राकेश के तीखे नक्श में भी रमेश की छाया थी , इसलिए राकेश से भी प्यार किया रागिनी ने जी भर के ।
मुकेश को पीछे से रमेश समझ कर ही आवाज दे बैठी थी एकदिन  ,  लेकिन वो भी एक  अक्श ही निकला था रमेश कहीं नही   ।
वो दिवानी सी झूमती रहती थी  कई रमेशों  के अक्श के साथ ।
कितने रमेश  आये और गये लेकिन रमेश था क्या सबमें निहित ?
सात वर्ष जवानी के बिता दिया ऐसे ही ।
आज अचानक  एक बडे उद्यमी के रूप में रमेश उसके सामने खड़ा था ।
वो कहता जा रहा था उसे अपनी जीत की कहानी और रागिनी तलाश रही थी एक और रमेश के अक्श को रमेश के ही  रूप में ।

कान्ता राॅय

कोई टिप्पणी नहीं :

एक टिप्पणी भेजें