रविवार, 23 अगस्त 2015

रक्तिम मंगलसूत्र / लघुकथा

आधी रात को चुपके  से सिरहाने के नीचे रखा सोने का मंगलसूत्र निकाल अपने हथेली पर  रख देखने लगा ।
खिड़की की झिडी  से आती चाँदनी में सोने का मंगलसूत्र झिलमिला  उठा  था  ।
आज पहली बार बडी हिम्मत करके बडी़ बिन्दी वाली औरत के गले से छीन कर भागा था । नहीं मालूम था कि कितना तेज दौड़ने से वो बच निकलेगा  ।
पकडे  जाने का  डर बना हुआ था ।  पसलियों और कंधों को मजबूती  से दृढ़ कर भाग रहा  था ।
घंटों दौड़ने के बाद भी वह रूकना नहीं चाहता था । पहली बार मंगलसूत्र जो  छीना था उसने ।
बडी़ सी बिंदी वाली के माँग में सिंदूर दमक रहा था । उसने बस माँग भर  देखा था सिंदूर से भरा हुआ  ,चेहरा नहीं देखा था  उसका । कैसा था उसका चेहरा ...!
सहसा  उसके  चेहरे  की परछाई में उसे  अपनी माँ का   सिंदूर भरा माँग   कौंध गया  ।
हाथ में रखे  मंगलसूत्र की कटोरियों  में अचानक माँग का सिंदूर भर गया ....वो सहम सा  गया ।  गीला गीला सा कुछ  रिसने लगा था मंगलसूत्र की कटोरियों से । उसके हाथ अब काँप रहे थे  ।
काली मोतियों की लड अचानक बढने  लगीं । बढते - बढते गले तक जा पहुँची  ।  बंधन कसने लगा था  । उसका दम अब  घुट रहा  था । चाँदनी भी  लाल हो गई  , उसी  माँग के सिंदूर सी  ।
सहसा  लाल रंग खून के रंग में बदलने लगा । 
हाथ में मंगलसूत्र लिए , बंधन से  जकड़े  गले के साथ ..घर से बाहर निकल कर वह  अब  फिर से दौड़ने लगा ...अपने पसलियों और कंधों को मजबूती  से दृढ़ करके ।
भागते - भागते पौ फट चुकी थी और वो पुलिस स्टेशन में  जाकर पस्त हो गिर पडा़ ।
सिंदूर में डूबा हुआ गीला चिपचिपा रक्तिम  मंगलसूत्र के बंधन से अब वह  आजाद हो  जेल की कोठरी में सुख की नींद ले रहा  था ।


कान्ता राॅय
भोपाल 

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