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चलते फिरते जाने कितने
शुभ कामनाएँ बटोरी होली की
लेकिन फिर भी जाने कैसे
शुभ शुभ तो था कहीं नही
फीके मुस्कानों को
होठों पर सजाया हमनें
लेकिन दिल के अंदर अभी तक
होलिका दहन जारी था
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बरसों सीचें पेड़ कुम्हलाई
मिट्टी ने चाहत ठुकराई
बीजों में सृजन की चाहत
अपनी चाहत पर अकुलाई
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आजकल छंद उदास है
उसे किस बात की आस है
शब्द गढ गढ रूप धरे है
फिर भी मुक्तक की प्यास है
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पत्थरों से डर लगता है
पत्थर बहुत ही पत्थर होते है
पत्थरों जैसे इंसान सारे
पथरीले सारे जहान होते है
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बहुत दिन हुए सपना नहीं देखा
सपने में कोई अपना नहीं देखा
देख लिया सारी दुनिया फिर भी
दुनिया में कोई अपना नहीं देखा
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मन के राज बडे़ गहरे होते है
इस पर सौ पहरे होते है
इसकी चाहत इससे ना पूछो
समंदर की जैसी लहरें होती है
कान्ता राॅय भोपाल
कान्ता राॅय भोपाल
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