वह रोज महाकाल के मंदिर प्राँगण में अपनी नीयत जगह पर बैठी मिलती है ।
बालों में जटायें और मस्तक पर चंदन का टीका उसे दिव्यता से परिपूर्ण कर रहे थे ।
चेहरे की सहजता से अनुमान यही लग रहा था कि वह दुख सुख से परे संयास के जीवन की परिसीमा से कहीं बहुत ऊपर जा चुकी है ।
ईश्वर से सामीप्य का एहसास होता है उसके सामीप्य से ।
क्यों ना हो ! वह श्वेत आभा युक्त श्वेतांबरी जीवन के मोह माया से परे परमब्रह्म से गठबंधन जो जोड़ चुकी थी ।
मै भक्ति के अतिरेक भाव में डूब ही पाई थी अभी कि , सहसा वह झोले मे से मोबाइल निकाल कर किसी गाड़ी का इंतजाम के लिए बात करने लगीं और मै उस श्वेतांबरी के गठबंधन पर चिंतन करने लगा था कि उसका असली गठबंधन किससे है ??
कान्ता राॅय
भोपाल
nice ......!!!
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