शनिवार, 14 मार्च 2015

वो अब सबला नारी है (लघुकथा )

हाथ में स्वर्णिम अवसर लेकर ,
विद्या आभूषण से सजधज कर ,
वो देखो अग्रसर हुई ।
कहो न उसको अबला अब ,
स्वंसिद्धा बनकर सबला अब
कई वीरों से बलवान हुई ।
गये दिन अब रोने वाली ,
गये दिन वो झुकने की ,
झुकना पिसना रोना ,
अब बातें है बरसों की ।
चमक रही हैं आसमान में ,
गुण सौंदर्य बिखराती हुई ,
कदम मिला कर घर से
बाहर निकली हैं ।
सहकर्मी सहधर्मिणी
सहयात्री कहलाई हैं ।
अंदर दहलीज के वो
सक्षम थी गुणवान थी तब भी ,
सरस्वती लक्ष्मी सुख समृद्धि की
देवी थी पहले भी ।
नारी जब भी उठती हैं
नये निर्माण बनाती हैं ,
परिवार को एक सुत्र में बांध ,
वो अन्नपूर्णा कहलाती हैं
धन धान्य किया घर को ,
संस्कारित हो अब बाहर आई।
सुशोभित हो हथियार
स्वर्ण अक्षरों से ,
दुर्गा हैं मैदान में अब ।
रणचंडिका रूप धरकर ,
शोणित पीने को आतुर हैं ।
समाज में विचरित रक्तबीजों का ,
वो शोणित पीने वाली हैं ।
महिषासुर वध करने वाली हैं ।
अब रोको ना उसे ,
अब टोको ना उसे ,
वो महालक्ष्मी जगत को ,
सुख समृद्धि देने वाली हैं ।
वो अब अबला नही ,
वो अब सबला नारी हैं ।
वो अब सबला नारी हैं ।

कांता राॅय
भोपाल

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