शनिवार, 14 मार्च 2015

अंतर्द्वंद्वों के घेरे में (लघुकथा )


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आज मन फिर से अंतर्द्वंद् से जूझ रहा था । नींद की आगोश में समाने के लिए एकबार फिर से प्रयत्नशील हो रही थी । विचारों का आना जाना ना जाने क्यों रात के नीरिवता में ही होती रहती है ।

इस कपड़े  में अचानक से जैसे कोई पैबंद लग गया हो । यह तो कहीं से फटा भी नहीं था फिर भी पैबंद लग जाना  । पैबंद लगाया था कि खुद में स्वंय लग गया ।

इसका जानना तो मेरे लिए बेहद जरूरी था , लेकिन क्या कभी इस रहस्य को उजागर कर पाऊँगी कि मेरे जीवन में मैने कई पैबंद लगा रखे थे ।

रात को सोते हुए भी जागती सी रहने की जो आदत है वो क्या पहले भी थी या सिर्फ तुम्हारे लिए ही था । यह स्वीकारोक्ति बहुत ही मुश्किल रहा है मेरे लिए हमेशा से ।
क्या प्रेम को निश्छल होते हुए भी छलित होना कोई समझ पायेगा ?

मन में छुपे हुए रहस्यों को अगर उजागर कर दूँगी तो वो क्या इतना ही निर्मल रह पायेगा ।बिना इल्ज़ाम लिए रह पाना बहुत ही मुश्किल होगा ।

वो पुकारा करता है अंतर्मन में मेरे । उसकी कलपती हुई आवाजें मुझे सोने नहीं देती है । वो रोता रहता है मेरे मन के अंदर । यह चेहरा उसका बाहर मुझे कभी भी नजर नहीं आया लेकिन उसकी  असली पहचान  मेरे अंदर ही कहीं छिपी  रखी  है ।

अचानक से मेरे सीने में दर्द सा जाग गया था और मै समझ गई कि वो तड़प कर रह गया है अभी ।
कभी सोचती हूँ वो कहीं भ्रम तो नहीं मेरे लिए । मै उसका मेरे में होने के महज़ मेरे ही द्वारा रचा कोई नया शगुफा हो लेकिन यह दर्द का क्या ?

कान्ता राॅय
भोपाल

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