रविंद्र भवन परिसर में काफी चहल पहल थी । अमिताभ बच्चन जी आज मधुशाला की विशेष प्रस्तुति देने के लिए आये थे ।
एक कवि हताश सा बिना निमंत्रण पत्र के अंदर जाने की अनुमति चाहता था ।
वह हरिवंशराय बच्चन जी का बहुत बडा प्रशंसक था और उसे उनकी रचित बहुचर्चित रचना " मधुशाला " कंठस्थ थी , लेकिन वो असफल रहा हाॅल के अंदर जाने के अपने प्रयास में ।
आखिर उसने हाॅल के बाहर ही " मधुशाला " का गान आरंभ कर दिया ।
स्वछंद स्वर में उछ्वासित होकर अद्भुत लयबद्ध कविता का गान आरंभ कर दिया ---
" मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला,
प्रियतम, अपने ही हाथों से आज पिलाऊँगा प्याला,
पहले भोग लगा लूँ तेरा फिर प्रसाद जग पाएगा,
सबसे पहले तेरा स्वागत करती मेरी मधुशाला
प्यास तुझे तो, विश्व तपाकर पूर्ण निकालूँगा हाला,
एक पाँव से साकी बनकर नाचूँगा लेकर प्याला,
जीवन की मधुता तो तेरे ऊपर कब का वार चुका,
आज निछावर कर दूँगा मैं तुझ पर जग की मधुशाला
प्रियतम, तू मेरी हाला है, मैं तेरा प्यासा प्याला,
अपने को मुझमें भरकर तू बनता है पीनेवाला,
मैं तुझको छक छलका करता, मस्त मुझे पी तू होता,
एक दूसरे की हम दोनों आज परस्पर मधुशाला । "
जितने भी लोग गाड़ी से उतरते कविता की तान सुनकर मंत्रमुग्ध हो खींचे चले आते । जरा सी ही देर में वहाँ " मधुशाला " सुनने वालों की भीड़ जमा हो गई ।
बात रविंद्र भवन के अंदर जब पहुँची तो अमिताभ बच्चन जी दौड कर बाहर आ गये उनको देखने के लिए । मंत्रमुग्ध होकर वह भी ठहर गये और वह भी " मधुशाला "की तान में खो से गये । क्षण भर में ही तन्द्रा टूटी तो कवि को गले लगाकर ऐसे रोये मानो कोई उनका बिछडा मिल गया था ।
रविंद्र भवन के बाहर ही मधुशाला के गागर से दो तृप्त हालाओं का मिलन हो रहा था ।
कान्ता राॅय
भोपाल
( काल्पनिक )
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