शनिवार, 14 मार्च 2015

दोहरा चरित्र (लघुकथा )

मै सोई हूँ तो यह कौन मेरे अंदर का जाग रहा है ?  क्यों इसकी शक्ल मुझसे मिलती है ?

"तुम क्या कर रही हो यहाँ ?
तुम्हारा क्या काम है मुझसे ? "

यह  जबाव क्यों नहीं देती है   ?  मुझे देख कर सिर्फ मुस्कुरा रही  है ।
उफ्फ !! क्या यह  मेरी खिल्ली   उडा रही है  ।   इसे देख कर क्यों मुझे कोफ्त सी हो रही है ।

" क्या तुम मुझे डराने आई हो ?   मै क्यों डरूँ तुमसे यह बताओ जरा  ? "

" मै अंतरआत्मा हूँ तुम्हारी  इसलिए तुम्हारे मन का सब बातों को जानती हूँ ।  कुछ भी छिपा नहीं मुझसे । इसलिए तुम्हारी दोहरे चरित्र पर मुझे हँसी आ रही है । "

कान्ता राॅय
भोपाल

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