लुटा कर अपना सर्वस्व
सदा ही तृप्त रहती है
वो पोषक है वो जननी सबकी
उपहास नही उपहार है रब की
बात करे वो जब आत्मसम्मान की
तुम हुँहकारी भरते हो क्यों
आगे बढने की उसकी चाहत पर
तुम ताव दिखाते हो क्यों
उसने अब है ठान लिया
करेगी ऊँचा अपना गौरव
तुम सहर्ष स्वीकार करलो वरना
नही बचेगा तुम्हरा पौरुष
उसके होने से ही तुम रहते हो
वो सत्य है वो वो अडिग है
दुनिया की दुनियादारी से
अब लडना सीख गई है
स्वीकार करो यही सत्य है
नारी ही सम्पूर्ण सत्य है
सत्य से कब तक भागोगे
आखिर सत्य को कब स्वीकारोगे
कान्ता राॅय
भोपाल
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