शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

चक्कर/लघुकथा


वह रोज इसी वक्त आॅफिस के लिए निकलती थी । खूबसूरत ,कमाऊ और अमीर घर की शहजादी ····! मनोज की तो पहले दिन ही उस पर नजर ही अटक गई थी ।
तीन साल से वह नौकरी के लिए भटक रहा है , अच्छी डिग्री ना होने के कारण हर जगह से मायूसी ही हाथ आई थी अब तक ।
अगर ये हाथ आ गयी तो गाड़ी ,बंगला , और बैंक बैलेंस सब अपने क़दमों में ! " शानदार जिंदगी जीने के ख्वाब इसी से पूरे होते नजर आये ।
बालों पर कंघी फेर, पास ही खड़ी बाइक के शीशे में अपना चेहरा देख , कन्धों को उचकाते हुए ,एकदम सधे हुए चाल में आगे बढ़ते हुए मुस्कुराते हुए बुदबुदा उठा , "बस जरा सा उससे चक्कर चलांना है , अब यहाँ तो मेहनत करनी पड़ेगी बाबू ! चल ,बढ़ आगे, सुना है कोशिश करने वालों की हार नहीं होती है "

कान्ता राॅय
भोपाल

सामंजस्य /लघुकथा


"मेरे बेटे का मार्कशीट देखिये , 97 प्रतिशत लेकर आया है। इसके एडमिशन को कैसे मना कर सकते है आपलोग ?"
"अरे ,अरे, आप तो ऐसे बिफर रहे है कि हमने कोई नई बात की है !"
" नई बात तो की ही है आपने, मैं ऊपर तक इस बात को लेकर जाऊंगा ! "
"देखिये , ऊपर भी हम ही बैठे मिलेंगे सिस्टम में , कुछ नहीं होने वाला। आपके बेटे का साल ख़राब होगा और आपका वक़्त भी "
"क्या ?·····क्या कहा आपने ,ऊपर भी आप ही बैठे हुए है , ·····ओह ! कहिये फिर मुझे क्या करना होगा ? "

" आपके बेटे में प्रतिभा है इसलिए सिर्फ एक लाख पर ही आपके साथ सामंजस्य बिठा रहे है ,नहीं तो इसी सीट के हम 2 लाख तक चार्ज करते है। इतना सामंजस्य तो अब आपको भी बनाना ही पड़ेगा ! "

कान्ता रॉय
भोपाल

घर के भगवान /लघुकथा


दरवाजे को जब घर के बुजुर्ग के मुँह पर धकेला गया तो गुस्से से भरा हुआ वह "धमाक से " बहुत तेज आवाज कर बैठा । बाहर मूसलाधार बारिश , कुण्डी भी दर्द से चटक उठी।
वह इन सबसे अनजान रसोई में , ऑफिस से आये पति के चाय- पानी के इंतजाम में लगी हुई थी। अचानक बिजली की तड़तड़ाहट से घबड़ा उठी , जैसे कही दूर बादल फटा हो , मूसलाधार बारिश शुरू हो गयी।
खिड़की जोर -जोर से खड़कने लगी। वह खिड़की बंद करने को तेजी से बढ़ी कि चौंक उठी , "ये यहां कैसे ? " सास-ससुर बारिश में सड़क पर.....! उसका मन एकदम से विचलित हो उठा , " अरे ,देखो , बाहर पापा जी हमारा घर ढूंढ रहे है , लगता है घर का नम्बर नहीं मिला , मैं जल्दी से लिवा लाती हूँ। "
"रुको जरा , मैंने बाहर से वापस भेज दिया है उनको , लिवाने की जरुरत नहीं है " - टाई की नॉट ढीली करते हुए वह खिन्न था ।
"ऐसा क्यों किया ? वो पिता है हमारे " -एकदम से स्तब्धता छा गई थी।
"पैसे तो वक़्त पर भेजता हूँ ना, यहां आने की क्या जरुरत थी उनको "- इतनी रुखाई ,वह अनमना उठी।
" माता -पिता घर के भगवान होते है , मत भूलो , हमारे भी बच्चे है ! "
"तुम नहीं जानती , मैंने जीवन भर झेला है इनको । चलो जल्दी से खिड़की बंद करो " - खिड़की ने सहम कर दरवाजे की और देखा ।
" नहीं , ये खिड़की बंद नहीं होगी , तुमने झेल ली है , अब मेरी बारी है झेलने की " - जोर से उसको डपट लगाते हुए वह दरवाजे की ओर बढ़ी कि दरवाजा और कुण्डी दोनों चहक कर खुल गए । सहसा दीवारों में उतरती हुई नमी भी गायब हो गयी ।

कान्ता रॉय
भोपाल

पतिता/लघुकथा

शोर शराबे में पूरा मुहल्ला डूबा हुआ था ।
खूब बातें बन रही थी ।
तीन तीन बच्चों की माँ सावित्री पकड़ी गई थी अपने घर में , किसी और के साथ ।
कितनी बातें कही जा रही थी । इतनी गालियाँ सुनकर भी पछतावा नही था उसके चेहरे पर ।
सावित्री अपने ऐय्यास पति कि झुकी हुई सिर को बड़े गुमान से देख रही थी कि उसकी नज़र अपनी ओर देखती बेटी पर पड़ी . अब उसका सिर शर्म से झुक गया था .

कान्ता राॅय

मवेशी /लघुकथा


" अरे , यहाँ आकर अब क्यों बैठ गया , क्या हुआ घर नहीं चलना है ? हो गया पटरियों को बिछाना आज , बाकी का अब कल पूरा करेंगे । "
" तु जा ,मै जरा देर में आता हूँ , वैसे भी कौन है अपना वहां ! खाने और सोने भर को ही तो ......"
" आज बहुत गम खा रहा है तू तो ,बता क्या हुआ है । "
" ठेकेदार इतनी दूर लाकर पटक दिया है मात्र पाँच हजार महीने पर । एक कमरे में दस लोगों को सोना और रहना पडता है । बोला था खाना और रहना फ्री । मै तो समझा था एक खोली देगा तो परिवार को भी यहीं बुला लूंगा ......, खैर , यह काम भी खत्म होने ही वाला है , फिर आगे क्या ! "
" आगे क्या , फिर दूसरी साईट पर भेज दिये जायेंगे "
" हाँ , भेज दिये जायेंगे दुसरे साईट पर , ठेकेदार के मवेशी जो ठहरे ! "


कान्ता राॅय
भोपाल

बंदिनी /लघुकथा


"आओ मेरे पास, मैं भव्य हूँ ,सोने का हूँ , तुम्हें रोज मोती के दाने दूंगा। "
" नहीं ,मैं नहीं आऊँगी तुम्हारे पास बंधने को , मुझे मेरी उड़ान प्यारी है। "
" देखो जरा , अपने ऊपर ,वो दूssर गिद्ध ,तुम पर नज़र लगाये हुए है , जरा सा चुकी कि झपट कर तुम्हें ले जायेगा । "
"अच्छा ? "
" मैं तुम्हें रानी बना कर रखूँगा। "
"नहीं , मुझे रानी नहीं बनना ! मैं स्वतंत्र उड़ान भरते हुए, लड़ते हुए , वीरांगना की मौत पसंद करुँगी बजाय तुम्हारी बंदिनी के। "
"अच्छा ! मैं चला , शुभकामना तुम्हें ! "
"कहाँ जा रहे हो अब ? "
"मेरे समस्त सोने के सलाखों को गलाकर तुम्हारे लिए उड़ने वाला घोडा जो बनाना है ! "

कान्ता रॉय
भोपाल



सूजा/लघुकथा


काॅलेज दूर होने के कारण लोकल ट्रेन में अब रोज सफर करना होगा । लेकिन उस भीड़ का क्या ......? मन घबरा रहा था । कैसे मैनेज करेगी उन अनचाहे स्पर्शों को जो भीड़ का फायदा उठा कर कोंचती कुहनियों और सरसराती अंगुलियों से उसकी आत्मा को छलनी करते फिरेंगे ? दिल बैठ रहा था ।
" हो गई तैयार ? ये ले टिफिन , सब अच्छे से रख लिया है ना ? देख वक्त का ख्याल रखना । जब तक लौटकर नहीं आओगी , मुझे चिंता रहेगी तुुम्हारी ! "
" जी , मम्मी , सब रख लिया , लेकिन लोकल की भीड़.......! कैसे मैनेज करूँगी मै ? "
" बाहर कदम रखने से पहले मनःस्थिति को मजबूत करना तो जरूरी है । जरा रूक ! यह ले , इसे ट्रेन में चढते वक्त अपनी मुट्ठी में कसे रखना । "
" यह तो सूजा है ! "
" हाँ , भीड़ में स्वंय के बचाव का एक आधार भी ! "
" माँ ,तुम भी .....? "
" हाँ , स्त्रीत्व को दंश देने वाले उनके सूजे के जबाव में यह हमारा सूजा । " सुनते ही वह खिलखिला उठी ।

* सूजा ,बोरा सिलने वाली मोटी सूई


कान्ता राॅय
भोपाल

संकल्प - एक व्यंग

" ओ बाबू , सुन ना ! मुझे नेता बनना है , " --पैर पटक - पटक कर भोलूआ आज जिद पर आन पड़ा । कम अक्ल होने के बावजूद भोलूआ अपने भोलेपन के कारण गाँव भर का दुलारा था ।
बापू तो सुनते ही चक्कर खा गया । बिस्कुट ,चाकलेट और मेले घुमाने तक के सारे जिद तो आसानी से पूरा करता आया था , लेकिन बुरबक , अबकी कहाँ से नेता बनने का जिद पाल लिया । सोचे कि चलो गुड्डे- गुडि़या वाला नेता बना देंगे । रामलीला वाले सुगना से नेता जी का ड्रेस माँग के भी पहिराय देंगे , लेकिन भोलूआ का जिद तो असली नेता बनने से है । अब का किया जाये !
थोड़ी देर बाद ही चौपाल पर सबको इकट्ठा किया गया । सबकी नजर मुर्झाये से भोलूआ के चेहरे पर पड़ी तो मन भर आया । गाँव भर को ही जैसे भोलूआ का नेता बनने की चिंता ने आ घेरा । अब भोलूआ को नेता तो बनाना ही पडेगा क्योंकि श्यामलाल जी , जो दुनिया भर की जानकारी रखते है उनकी बातों का कोई काट नहीं है , वे बोल दिये है कि नेता बनने का दौरा नेता बनने से ही जायेगा ।
भोलूआ ,आखिर पूरे गाँव का अपना दुलारा बच्चा है ,जैसे नंदगांव में कृष्ण हुआ करते थे ।
!
आखिर बच्चे की चाहत का सवाल है । अब यह नेता बने तो बने कैसे ? मिलकर तय हुआ कि धनुआ नाई के पास चला जाये । धनुआ नाई का नेता लोगों के दाढ़ी बनाने के लिये वहाँ रोज का आना -जाना है । इतिहास गवाह है कि नाई राज -रजवाड़ों के भी राजदार हुआ करते थे तो जरूर नेताओं के भी जरूर वह राजदार होगा । वही बतलायेगा कोई नया रास्ता ।
धनुआ अपने घर इतना भीड़ देख सकपका गया । एकदम से चिल्ला उठा , " ये नेता बनकर कहाँ घुस आये हो आप लोग ! "
" देखो वो नेता बोला , मुझे नेता बोला ,मै नेता जरूर बनूँगा ।" भोलूआ के उम्मीदों को मानों पंख लग गये ।
" अरे ,जहाँ भीड़ वहीं नेता ! आपके पास भीड़ तो आपका नेता बनना पक्का ! " -बापू भोलूआ के सिर पर हाथ फेर उम्मीद से सहला दिये ।
गाँववालों को मानों धनुआ नाई नहीं बल्कि पारस पत्थर मिल गया था , सब घेर कर उसको ध्यान से सुनने लगे ।
" लेकिन एक चीज़ की कमी आड़े आ सकती है आपके नेता बनने में ! " धनुआ गंभीर हो उठा।
" कौन से चीज़ की कमी...? " मुश्किल से सब्र रखे हुए सब एक साथ ही बोल उठे ।
" ध्यान से सुनो , यह बहुत राज की बात है । सभी नेताओं के पास यह होता है । जिस नेता के पास इसकी कमी होती है वो दुमकटा कहलाता है --" धनुआ फुसफुसा कर कहा ।
" हैss , दुमकटा ! नहीं , नहीं , मुझे दुमकटा नेता नहीं , अच्छा नेता बनना है ।" भोलूआ का धैर्य टूट रहा था ।
"अरे , पहली मत बुझाओ , का होना जरूरी होता है । हम सब ले आयेंगे । ईहाँ , लडका का प्राण निकल जायेगा , देर ना करो ,बताओ !" भोलूआ के बापू अधीर हो उठे ।
" अरे ,हम भी अधिक तो नहीं जानते है, लेकिन वे कोई " संकल्प " की बात करते है , कि नेता के पास जनता को दिखाने को कुछ हो ना हो, " भीड़ " और "संकल्प" , ई दुई चीज़ दिखाना बेहद जरूरी होती है । भीड़ तो आपके पास है ही बस संकल्प का जुगाड़ कर लीजिये। "
" ओ भगवानलाल ,इधर आ ,सुन , तुम कल तड़के ही शहर निकल जाना , चाहे जितनी भी महंगी हो , संकल्प खरीद कर ही लौटना । सुने है वहाँ शहर में पढे -लिखो के तबके में ,रोज संकल्प गढे जाते और बेचे जाते है । "
कान्ता राॅय
भोपाल

तुम्हारा हक़/लघुकथा

बेहाल होकर वह मोहित को एकटक देखे जा रही थी। चादर से ढका शव, शान्त चेहरा , सब्र आँखों से टूट कर बह रहा था , लेकिन रुदन हलक में जैसे अटक गया हो ,--" क्या हुआ तुम्हें ? आँखे न खोलोगे मोहित , देखो , मैं बेसब्र हो रही हूँ। क्या तुम यूँ अकेला मुझे छोड़ जाओगे ? तुमने तो कहा था, कि तमाम उम्र मेरा साथ दोगे, फिर ऐसे बीच राह में मुझे छोड़ , कहाँ , क्यों ? "-- होठों पर ताले जडे हुए थे , लेकिन आँखों ने सारी मर्यादा तोड़ दी थी.
उसे एहसास हुआ दो नज़रों का घूरना , वह ग्लानि से भर उठी। अपराधी थी उन दो नज़रों की। शायद उसको यहां आने का , इस मातम का अधिकार नहीं था।

उसके मंगलसूत्र और सिन्दूर का कोई मोल नहीं था समाज की नज़र में , जो मोहित ने मंदिर में सात फेरे लेते हुए पहनाये थे । सूनी नज़र अब तक टिकी हुई थी उस पर , वही थी असली हकदार , इस शव पर रोने की। वह पत्नी कहलाती थी और इनके बच्चों की माँ भी ,
पर वह किस अधिकार से यहां ......? सिर्फ प्यार का रिश्ता ? अंतरंगता का रिश्ता ? ये रिश्ता मंगलसूत्र और चुटकी भर सिंदूर देकर भी, उसकी विधवा कहलाने का अधिकार नहीं देता है ।
बार -बार कहता था कि , ---- सुमि , मेरा नाता सिर्फ तुम से है , देखना एक दिन तुम्हें तुम्हारा हक़ जरूर मिलेगा।
मन हो रहा था , दोनों हाथो में उनके चेहरे को लेकर देखू , छूकर देखू । अक्सर कहते थे कि --तुम्हारे स्पर्श से मैं मरता हुआ भी जी उठूंगा ,
वह छूना चाहती थी उसे , लिपटकर रोना चाहती थी , शायद उसकी प्रीत की गर्मी से जाग जाए और खड़े होकर कहे एकदम से कि --देखो मैं ना कहता था , कि तुम्हारे छूने भर से, मैं मरता जी उठूंगा !
अचानक आस -पास सरगर्मी बढ़ गयी, महिलाओं ने विधवा होने की रस्म- अदायगी शुरू कर दी। उसे भी ये रस्म निभानी थी उनके नाम की ,लेकिन ....... ? वह छटपटा उठी , कैसे संभालेगी अब स्वयं को यहां........!
"आपको वहाँ बुलाया जा रहां है "
"कहाँ ? " वह चौंकी !
नज़र सामने जाकर , टकराकर , वापस गुनहगार सी झुक गयी।
" आ बैठ यहां , तुझे भी तो ये रस्म करनी है ! "
स्तब्ध सी बैठ गयी ,
"वह , मुझसे अधिक तेरा ही था। चल , उसके जिन्दा रहते न सही , लेकिन उसकी विधवा होकर तो साथ रह ! " --
देर से हलक में अटकी हुई हिचकियों ने विलाप के सारे बाँध हठात तोड़ दिए।


कान्ता राॅय
भोपाल

लक्ष्य की ओर /लघुकथा

लक्ष्य को संधान कर , संकल्प को साथ ले , वह बस्ती से विदा हुआ । कच्चे रास्ते और मंजिल दूर ,लेकिन इरादा पक्का था ।
एक मुसाफ़िर की निगाह संकल्प पर पड़ी , वह मुग्ध हो उठा ,
"क्या इसका सौदा करोगे ? ढेरों रूपये दूंगा ! " 
-- सुनते ही वह उखड़ गया।

" नहीं ! " -- उसकी फटी हुई कमीज़ में से झांकती चिपकी , लिज़लिज़ी गरीबी भी सहम गयी। संकल्प का हाथ थाम , आगे बढ़ गया ।
थोड़ी दूर और जाने पर एक दयावान यात्री उसके पैरों के छालों में से रिसता हुआ मवाद की मानिंद , उसके आत्मबल को भी रिसता हुआ जान , संकल्प के बदले एक चमचमाती मोटर - गाड़ी देने की पेशकश की ।
एक नजर उसने अपने पैरों की तरफ देख , उसकी तरफ आँखें तरेर , संकल्प का हाथ और अधिक कस , गर्वोन्नत- हो, अपनी चाल तेज कर ली ।
लक्ष्य दूर था अभी भी , कि पास गुजरते व्यक्ति का दिल भी संकल्प पर अटक गया । उसके दर-दर भटकने को बेवजह बताते हुए संकल्प के सौदे में एक आलीशान मकान देने की बात कही । वह थक चुका था । संकल्प को देर तक जकड़े रहने के कारण हाथ में झुनझुनी उठ रही थी । घर की कामना या संकल्प······?
अँगुलियों के इशारे से उसको दूर रहने को कह ,बड़ी ही अकड़ से आगे बढ़ गया । इन सब बातों को देख सुन रहे अन्य यात्री प्रभावित हुए । वे लोग उसकी जय -जयकार करने लगे ।
यात्रा पूर्ण हुई कि , हठात् नजदीक से गुजरता हुआ राजनेता का काफिला उसे देख कर रूक गया । एक कार्यकर्ता गाड़ी के पास जाकर राजनेता के कान में फुसफुसाते हुए कुछ कहा , वे एकदम से चौंक उठे । नेता जी गाड़ी में से बाहर आ , उसके समक्ष अति विनम्र भाव से हाथ जोड़ , सविनय निवेदन किये , --" मै आपको अपने मंत्री मंडल में शामिल कर लूंगा , बदले में आप अपना संकल्प मुझे दे दें। "
सुनकर वह ठिठका , अपनी फटी हुई कमीज़ में चिपकी, लिज़लिज़ी गरीबी और पैरों के छालों में से रिसता हुआ मवाद देख तनिक देर सोचा ····· ! पीछे जय जयकार अभी भी जारी थी । आँखें चौंधियाईं , एक स्मित मुस्कान होंठों पर फ़ैल गई । उसने संकल्प का हाथ छोड़ दिया ।

कान्ता राॅय
भोपाल

कागज़ का गाँव/लघुकथा


जीप में बैठते ही मन प्रसन्नता से भर रहा था। देश में वर्षों बाद वापसी , बार -बार हाथों में पकडे पेपर को पढ़ रही थी , पढ़ क्या रही थी , बार -बार निहार रही थी। सरकार ने पिछले दस साल से इस प्रोजेक्ट पर काम करके रामपुरा जैसी बंज़र भूमि को हरा -भरा बना दिया है।गाँव की फोटो कितनी सुन्दर है , मन आल्हादित हो रहा था। उसका गाँव मॉडल गाँव के तौर पर विदेशों में कौतुहल का विषय जो है !
बस अब कुछ देर में गाँव पहुँचने ही वाली थी। दशकों पहले सुखा और अकाल ने उसके पिता समेत गाँव वालो को विवश कर दिया था गावं छोड़ने के लिए।
"अरे , ये कहाँ , चक्कर पर चक्कर लगा रहे है आप ,गाँव की तरफ गाडी घुमाइए। " -- मीलों निकल आने के बाद भी दूर -दूर तक सुखा , ह्रदय बैठा जा रहा था।
" मैडम आप के बताये रास्ते से ही जा रहे है , मुझे तो यहां आस -पास बस्ती दिखाई ही नहीं दे रही । सन्नाटा ही सन्नाटा है , इंसानो की तो क्या , लगता है कि चील -कौए की भी यहां बस्ती नहीं है। "
" क्या ! सामने जरा और आगे चलो , पेपर में तो बहुत तरक्की बताई है गाँव की , इसलिए तो हम गावं में बसने की चाहत लिए विदेश में सब कुछ बेच आये है ! "
"और कितना आगे लेकर जाएँगी , गाड़ी में पेट्रोल भी सीमित है "
" रुको गूगल सर्च करती हूँ " - कहते हुए लैपटॉप निकाली , ओह ! नेटवर्क ही नहीं ......... , बेचैन होकर फिर से गाँव को पेपर में तलाशने लगी।
" मैडम , कागज़ का गाँव था लगता है उड़ गया "

कान्ता रॉय
भोपाल

मक्खन जैसे हाथ / लघुकथा


नई -नवेली दुल्हन सी वह आज भी लगती थी । आँखों में उसके जैसे शहद भरा हो । पिता की गरीबी नें उसे उम्रदराज़ की पत्नी होने का अभिशाप दिया था । उसका रूप उसके ऊपर लगी समस्त बंदिशों का कारण बना ।
उम्रदराज और शक्की पति की पत्नी अपने जीवन में कई समझौते करने के कारण कुंठित मन जीती है ।
आज चूड़ी वाले ने फिर से आवाज लगाई तो उसका दिल धक् धक धड़कने लगा । वह हमेशा की ही तरह पर्दे की ओट से धीरे से उसे पुकार बैठी , " ओ , चूड़ी वाले ! "
उसके मक्खन से हाथों में छुअन से होने वाले सिहरन का प्यार भरा एहसास देने वाले उस चूड़ी वाले का बडी़ शिद्दत से इंतजार किया करती थी ।
चुड़ीवाले ने हमेशा की तरह वहीं बाहर बैठ कर अपना साजों सामान पसार लिया । उसे मालूम था कि इस मक्खन जैसे हाथों वाली को सिर्फ हरे रंग की चूड़ियाँ ही अच्छी लगती है । पसारे हुए सभी चूडियों में धानी रंग की चूडियों पर पर्दे की ओट से मक्खन जैसे हाथों वाली की अंगुलियों ने इशारा किया ।
अब मक्खन जैसे हाथ, चुड़ी वाले के खुरदरे से हाथों में , देर तक , बेचैनी और बेख्याली के पल को जी रही थी ।

कान्ता राॅय
भोपाल

अधजली /लघुकथा


क्या कसूर था उसका ? मन बेबस हो ,बार - बार डायरी के पन्ने पर लिखे उसके नाम पर जाकर ठहर जाती थी। एकटक देखती जाती ,मानो नाम में उसके अक्स दिखते हों , इबारत कर रही थी वह ....! अंगुलियों को फिराते हुए सहला रही थी उन जख्मों को भी , जो वह दे गया था ।
"उमाsss ! कहाँ भावमग्न हो रही है तु ?"

"कहीं नहीं रे ? "- उसने चौंक कर डायरी बंद कर ली , शायद फिर से चोरी पकड़ी गई थी । जिगरी थी और बरसों से रूम पार्टनर भी।

"तुमने सीधी माँग काढ़ ली ? फिर से उसकी याद लेकर बैठ गई क्या ? "

" वह कहता था मेरे तीखे ,सलोने नैन -नक्श पर यह बहुत फबते है । " उसके आँखों में करूण भाव तैर गये ।

" इस द्वंद से निकलो , नहीं तो जी नहीं पाओगी " गंम्भीर स्वर में कहते हुए वह अंदर तक सिहर उठी।उसकी व्यथा - वेदना की सालों से गवाह रही हैै ।

" उसने कहा था मेरा इंतज़ार करना " आर्तनाद करती हुई छल से छलक पडीं ।

" चार साल हो गये है , एक बार पलट कर फोन नहीं किया उसने , मैने कहा था तुझसे कि शहर से बाहर जाते ही वह पलट कर एकबार भी नहीं देखेगा "

" मुझे बात नही करनी है इस विषय में , मेरी आज की डाक कहाँ है ? " हाथ पकड़ कर आगे कहने से रोक लिया ।शायद वह सच को स्वीकारना नहीं चाहती ।

" यह ले ,मर-खप सारी जिंदगी इन्ही दफ्तरों के डाक समेटती , मुझसे कुछ ना छुपा है तेरा , मालूम है मुझे , तू क्या ढूंढा करती है इनमें। " कहती हुई वह बाहर की तरफ चली गई ।
उस बेवफा से एक तरफा रूहानी -रिश्ता .......! इस अभागी को बता भी नहीं सकती कि उसने तो पिछले साल ही मिठाई के डब्बे के साथ शादी का कार्ड भेजा था । चुल्हा में फेंका हुआ कार्ड तो जल गया पर , यह अधजली .......!

कान्ता राॅय
भोपाल

स्पेशल सेलिब्रेशन /लघुकथा

अखबार के इस काॅलम पर नज़र पडते ही दिल में दबी ख्वाहिशें करवट बदलने लगी । "न्यू ईयर सेलिब्रेशन "का कम्प्लीट पैकेज का व्यौरा दिया हुआ था ।
इंडियन ,चाईनीज ,काॅन्टिनेंनटल फूड , सुप ,स्टार्टर के साथ इंटरटेनमेंट के लिए कई चौंकाने वाले खेल और यह क्या ! "मास्क डाँस विथ पार्टनर" ....... आँखें सिकुड़ने लगी , दिल बल्लियों सा उछलने लगा , दृश्य आँखों के सामने सजीव हो उठा था ।
हृदय गति बेकाबू हो धक -धक .... , शायद ऐसी ही पार्टियों के बारे में उसने सुन रखा था कि डाँस करते हुए लाईट बंद हो जाती है और आपस में पार्टनर की बदला - बदली ....उफ्फ ! यार , लाईफ में एक बार तो इस सेलिब्रेशन का हक बनता ही है । चार्ज भी अधिक नहीं है ।
इस बार बस , पूरा मजा ! पत्नी राजी होगी ? अरे , मना लेंगे ,इसमें क्या है ! जरा सा नाटकबाजी चलेगा उसका , लेकिन उसको भी तो .......!
पत्नी नें पिछली बार तिरुपति प्लाॅन करके न्यू ईयर सेलिब्रेशन का तो बाजा बजा दिया था । खाक मजा ! नाहक ही फालतू खर्च हुए थे । उस खर्च से कम ही है यह ! पत्नी से कह देंगे कि इस बार हम यहीं जायेंगे ।
लपलपाती नजर , मास्क पहने बाॅल डाँस के ख्वाब लिये , खुशी से काँपते हाथों से फोन को उठा बुकिंग कन्फर्म करवाने को अखबार में नम्बर ढूंढने लगा ।
" सुनो ! " अच्छे काम के वक्त पत्नी का इस तरह बीच में टोकना उसे कभी से पसंद नहीं आया ।
" क्या है ? " इस व्यवधान से वह झल्ला उठा ।
" अरे ,चिल्लाते क्यों हो , तुम्हारे काम की ही बात करनी है ।"
अरे वाह , क्या वह भी इसी न्यू ईयर सेलिब्रेशन की बात करने वाली है ......!
" हाँ , डाॅर्लिंग , बोलो क्या बात है ? " अावाज में शहद घुल उठा था ।
" लो सम्भालो टिकट , हम इस बार सपरिवार वैष्णो देवी व कश्मीर जायेंगे । पापा जी को भी फोन कर दिया है । "
मास्क , बाॅल डाँस , .... पार्टनर , बत्ती गुल .... सब के सब धुँधलाती आँखों के आगे काले- काले साये बन कर घुमने लगे ।

कान्ता राॅय
भोपाल

परख/लघुकथा

" आइये ,अपनी कुर्सी पर विराज लीजिए ।" इतना तंज ! ऐसे कह गये वे जैसे उसके सिर पर ही बैठने वाली हो ।
"जी , अब काम समझा दिजीए कि मेरा काम क्या होगा यहाँ ?" उनके लहजे से अपमानित सा महसूस कर रही थी । क्या इनके साथ ही काम करना होगा उसे ? कैसे झेलेगी ? हृदय रूआँसा हो रहा था ।
" अरे ,आप क्या काम करेंगी ? आप तो बस पगार उठा कर ऐश करेंगी , काम तो हमें करना होगा ।" वह चिढ़ कर बोला ।
"मतलब ?" सुनकर अनमना उठी । सतीश ,आप कैसे झेलते रहे होंगे ऐसे लोगों को , पति की याद में आँसू छलक उठे ।
" हुँ ह ,अनुकंपा नियुक्ति जो ठहरी ! आपको आता क्या है , जो काम करेंगी ! इससे अच्छा था कि आपको घर बिठाकर ही पगार ....." बातों में कटाक्ष की पैनी धार सीने को भेदती सी उतर गई ।
" पहले काम तो सिखा कर देखिए , अनाधिकारिक रूप से नहीं आई हूँ यहाँ , पढी - लिखी हूँ , आपसे वादा है अपनी मेहनत और लगन से इतना काम करके दुंगी आपको कि , मै अनुकंपा नियुक्ति नहीं , कुर्सी की हकदार लगुंगी ।" सहन करने की क्षमता ने जबाव दे दिया था ।
" अकड़ तो बहुत है , लिजिये यह फाइलें ,पढिये और समझिए , ना समझ में आये तो मै यही बगल वाले सीट पर ही हूँ । " मुस्कुरा कर वह अचानक से सौम्य हो गये ।
अचानक आत्मीयता ?
ओह ! नयी सोच , उसके मनोबल को परखा जा रहा था । आॅफिस में भी रैगिंग ..... वह मुस्कुरा उठी ।


कान्ता रॉय
भोपाल

कलेजे पर ठूँकी कील /लघुकथा

"हमारे हाथों की बनी इन अगरबत्तियों ने कितनी धूम मचा दी है बाजार में ।" खुश्बूओं से सराबोर लोईयों को हथेलियों पर रगड़ती मसलती हुई रमा दर्प से भर गई ।
"और अपने हाथ जो काले हो रहे है सो , इसका क्या ?" अपनी काली हाथों को देखकर लता अनमना उठी ।
"अरे ,चुप कर हठेली , हाथ ही काले हो रहे है ना इस कमाई में , इज्ज़त तो धप्प सी उजली चमक रही है !
जा , वहाँ साबून की बट्टी से हाथ रगड़ कर साफ कर आ ,पल भर में यह भी चमक जायेंगे । " चूरे को मिलाती हुई जीजा बाई उसे समझा अपने काम में लगी रही ।
"इसे तो जब देखो काया की चिंता ही लगी रहती है ।
राधा बाई बिना बताये , पिछले कई दिनों से काम पर नहीं आ रही है ? " रमा को अचानक राधा की अनुपस्थिति का भान हो आया ।
चुहल करने में जरा भी पीछे नहीं रहती थी वह भी ।
" उस दिन मालिक कच्चा - माल लाने उसको साथ लिवा गये थे ,उसके बाद से ही काम पर नही लौटी । " लता की आँखों में चिंता की हलकी लकीर तैर गई ।
"मालिक को बता कर ही छुट्टी पर गई होगी फिर तो !" गहरी साँस लेते हुए रमा ने तर्क दिया ।

" शायद " आज सुबह उस पर गहराती मालिक की निगाहों को याद करके लता सिहर उठी ।
सब सुन कर सीता बाई की बुढ़ी आँखों में चिंता की लकीरें खींच गहराती गई । एक पल ठहर ,गहरी साँस ले , फिर जोर जोर से अगरबत्तियों को आकार देने लगी ।
" ऊँह , मालिक ! कौन सा कच्चे - पक्के लेन देन किये उसके साथ अभी बताऊँ तो .....! " दूर से सबको कुछ कहने को उठती कम्मो की आवाज घुटकर ही रह गई , पीछे से अचानक किसी कर्मचारी की हथेलियों ने मुँह कसकर दबा दिया ।
" साली , एक राधा के लिए यहाँ सैकड़ों की रोटी पर तालाबंदी करवायेगी क्या ?"
काठ से कलेजे पर एक कील ठक्क से , फिर ठोंक दी गई ।

कान्ता राॅय
भोपाल

गुरुवार, 12 नवंबर 2015

मेरे मोहम्मद और मेरे नारायण/लघुकथा

अंग्रेजी हुकूमत के अधिकारी की तरह उसने लगभग गुर्राते हुए पुछा ,
 "आप ईदगाह में इन नमाज़ियों के बीच क्या कर रहे है "
" मैं यहां नमाज़ अदा फरमाने आया हूँ "
"क्यों , आप तो हिन्दू हो··· !"
"जी , मैं हिन्दू तो हूँ लेकिन मुझे एक बीमारी है। "
"बीमारी है तो डॉक्टर के पास जाओ , यहां क्या कर रहे हो ?"
" मेरी बीमारी का इलाज़ मेरे मोहम्मद और मेरे नारायण के पास ही है। "
"मेरे मोहम्मद और मेरे नारायण ········? चलो अब पहेलियाँ न बुझाओ , विस्तार से बताओ जरा "
" मैं जब पूजा करता हूँ तो मोहम्मद दिखाई देते है और नमाज़ पढता हूँ तो नारायण दिखाई देते है , इसलिए मैंने रमजान में मोहम्मद में वास करते नारायण के लिए रोज़े रखे है तो आज मैं उनका ही नमाज़ी हूँ। "


कान्ता रॉय
भोपाल

आस/कविता


स्नेह के आँचल तले
एक बीज बोया था
आस की अभिलाष पाले
एक भूल बोयी थी
नींद से जागते ही
उम्मीदों के जल से
रोज सींचा करती थी
रोज आँखों से
नापती थी उसको
टक टकी लगा कर
रोज सोचा करती थी
आने वाला कल हरा होगा
आँचल मेरा भरा होगा
उम्मीदों की क्यारियाँ सजेंगी
जीवन कलियाँ ,पँखुडियाँ होंगी
मौसम ने ली अँगड़ाई
आस अभिलाष की हुई लड़ाई
खूब गरजी खूब बरसी
बाग बगीचे कर गई मिट्टी
हो गये सब गिट्टी गिट्टी
नमक डाल कर बोझल कर गयी
सपने सारे ओझल कर गयी
आस हो गई जल थल ,जल थल
टीस रह गई पल पल ,पल पल
ढूंढ रही हूँ दोमट मिट्टी
काली कादो कीचड़ मिट्टी
फिर रही हूँ आँचल आँचल
बीज की अभिलाष लिये
एक नई फिर आस लिये ॥
कान्ता राॅय
भोपाल

आखिरी स्टेशन का मुसाफिर/कविता

जिंदगी रेल सी
दौडती हुई
भागती हुई
स्टेशन दर स्टेशन
सरक कर रूकती हुई
चढते मुसाफिर
उतरते मुसाफिर
रेलम की पेल में
यादों का कारवां
सीट के नीचे दबकर
रह जाता है
ट्रेन में बैठा
आखिरी स्टेशन का मुसाफिर
सब देखता हुआ
कुछ सोचता हुआ
बैठा रहता है अकेले
साथ बैठ कर
मुँगफली खाते हुए
चाय के सकोरे के संग
बनाए हुए कुछ रिश्ते ,
कुछ संवाद और समस्त संवेदनाओं को
अपने बैग में कस कर
कंधे पर डाल
बीच स्टेशन का मुसाफिर
उतर जाता है
ले जाता है डब्बे की
कुछ दास्तान अपने संग
बदले में सीट के नीचे
बहुत कुछ अपना छोड़ जाता है
देखता रहता है
सोचता रहता है
बैठा रहता है अकेले
आखिरी स्टेशन का मुसाफिर
आखिरी स्टेशन आने से पहले
एक सन्नाटा सा
ट्रेन की बोगी में
भर जाता है
यादों के काफिले के संग
गाड़ी सरक कर
आखिरी स्टेशन पर
पहुँच जाती है
प्रतीक्षा करते हुए
बेसब्री से
अपने लोगों को
देखते ही वह ट्रेन के
आखिरी स्टेशन का मुसाफिर
रम जाता है
चहकते हुए महकते हुए
अपने लोगों में स्वंय को
दुरूस्त पाता है
गंतव्य पर आते ही
मुसाफ़िरों की यादों को वह भी
उसी सीट के नीचे छोड़ आता है
उन यादों को वह भी
उसी सीट के नीचे छोड़ आता है
कान्ता राॅय

विपरीत समय काल /कविता

शोर उठा
रावण जल रहा है
आँखें फाड़ -फाड़
चारों ओर देखा
क्यों बार - बार
राम ही जलते हुए
दिखाई दिये
रावण नहीं वहाँ तो
राम जल रहे थे
बुराई हँस रही थी
सच्चाई जल रही थी
सत्य का हानि
बुराई की विजय
विपरीत समय काल
स्वंय पर अविश्वास
अडिग रहें हर हाल
भले राम जले
भले रावण करें अट्टहास
हम रहें बस
स्वंय को संभाले
हम ना जले
राम की तरह
बचना होगा
रावण के हर प्रहार से
धर्म विजय मुश्किल है
अधर्म पताका झिलमिली है
संताप का कर्ज़ चुकायें
झिलमिली से बच बचायें
भले राम जले
भले रावण करें अट्टहास
हम रहें बस
स्वंय को संभाले ।
कान्ता राॅय
भोपाल

कैश बाॅक्स के नजारे/कविता

साफ़ नीला आसमान
सफेद रूई सा हल्का
बिलकुल हल्का ,
हल्का वाला सफेद बादल
कभी बहुत भारी सा हो जाता है
वक्त रेशम सी ,
रेशम सी मुलायम वक्त
फिसलती हुई ,सरकती हुई
रेशमी सा एहसास देती हुई गुजर जाती है
वक्त के वजूद में
जाने क्यों पहिए होते है
जो दिखाई नहीं देते पर ब्रेक नहीं होते है
शायद ब्रेक भी रहें हो कभी लेकिन
आजकल वक्त नहीं रूकता
यहाँ बाजार में बहुत भीड़ है
यह भीड़ कभी खत्म नहीं होती
यहाँ वक्त का कोई आस्तित्व नहीं है
रूई के फाये सी हल्की बादलों को
कोई नहीं देखना चाहता
वक्त नहीं है बाजार में किसी को आसमान देखने की
और चाहत नहीं है
उनको चाहत की क्या जरूरत
नीला आसमान तो
उनके दायरे में ही सिमटा हुआ जो होता है
वो सिर्फ कैश बाॅक्स की तरफ देखते है
नीला आसमान नहीं देखते
रूई के फाये सी हल्की बादलों को नहीं देखते
सिर्फ कैश बाक्स की तरफ देखते है
कैश बाॅक्स में उन्होंने
नीले आसमान को बंद करके रखा है
जब मर्ज़ी निकाल लेते है
जब मर्ज़ी देख लेते है ।
क्या जरूरत उन्हें बसंत की
क्या जरूरत उन्हें सावन और सुगंध की
ठहर कर क्यों देखे भला
वो तो सारे मौसमों को
अपने कैश बाॅक्स में बंद रखते है
जब फुरसत मिलती है काम से
जब मन करता है आराम से
कैश बाॅक्स में से सारे नजारे निकाल लेते है
और जी लेते है जब तब अपने मौसम को

क्या संवेदनाओं के खरीददार हो /कविता

कहने सुनने में तुम अक्सर
जाने क्या ढूंढा करते हो 
सरोकार क्या तुम्हें आंसुओ से
क्या आँसुओं के खरीददार हो ?
सोई जागी धुँधली आँखों में
सपनों की किरचन है बाकी
सरोकार क्या तुम्हें किरचनों से
क्या किरचनों के खरीददार हो ?
जलती सुलगती सी जिन्दगी
पर-उपकार विलुप्त सी रही
पर-उपकार क्या चर्चा वस्तु
क्या परोपकार के खरीददार हो ?
मान सम्मान के पैमाने
निराला जगत व्यवहार हुआ
सरोकार क्या तुम्हें व्यवहारों से
क्या व्यवहारों के खरीददार हो ?
आस लता-मंडप के छाँव की
संवेदनाओं की झुरमुट की
सरोकार क्या तुम्हें संवेदनाओं से
क्या संवेदनाओं के खरीददार हो ?
कान्ता रॉय
भोपाल

आईना ठुकराता नहीं/कविता

आइने की विशालता
आईने की शख्सियत 
आईना ठुकराता नहीं
सबको समा लेता है
जब चाहो आईने में
अपना वास देख लो
अपनी जगह दूजे का भी
जब चाहो निवास देख लो
वो किसी एक का नहीं
वो सबका होता है
जब जो मिल जाए
आईना सबको मान देता है
नहीं समेटता अपने अंदर
उनके जज़्बातों को
उनके हटते ही
किसी और को
समां लेता है अपने अंदर
मानो उसके जाने का
जैसे इंतज़ार था
लौट आने से भी
उसके एतराज़ नही
संवेदनाये नहीं
वो पत्थर है
वो भूलती नहीं
अपनी शख्सियत
वो भूलती नहीं
अपनी हैसियत
कान्ता रॉय (11.11.2015 /2;20 pm)

दीप-दीवाली ( गीत )

पिया संग दीप जलाऊँ हो रामा दीप दीवाली
रंग रंगोली द्वार सजाऊँ 
गेंदा गुलाब महकाऊँ हो रामा दीप दीवाली ....
पिया संग दीप जलाऊँ हो राम दीप दीवाली ......
लक्ष्मी ,शारदा पूजन बेला
संग गणपति विराजे हो रामा दीप दीवाली ....
पिया संग दीप जलाऊँ हो रामा दीप दीवाली .......
खील बताशे लड्डू ओ बर्फी
खीर में तुलसी हो रामा दीप दीवाली.......
पिया संग दीप जलाऊँ हो रामा दीप दीवाली ......

झिलमिल करे दीपक बाती
जगमग जगमग रौशन हो रामा दीप दीवाली .......
पिया संग दीप जलाऊँ हो रामा दीप दीवाली ......
सुख की कामना सुख की ज्योति
फुलझडी और अनार हो रामा दीप दीवाली.....
पिया संग दीप जलाऊँ हो रामा दीप दीवाली .......
कान्ता राॅय
भोपाल

मिटटी मैं नदी खेत की/कविता

मिटटी मैं नदी खेत की 
पड़ी दबी थी कीचड़ सी 
टोकरी में उठी उन हाथों से 
जल सिंचन हो पोषित हुई 
कोमल बनी ,मृदुल बनी 
दो हाथों ने आज 
क्या से क्या बनाया
झूमर बनी ,गुलदान बनी 
मटकी , सुराही औ दीप-दान बनी 
बाती संग जोड़ी बनकर 
अँधेरों में रौशन हुई 
महकती सी चमकती सी 
जगमग हुई रौशनी बनी 
मैं दीपक झिलमिल 
तेरी हाथों साकार हुई 
चाक तेरी चाकरी में 
कुम्हारी रहे सदा सलामत 
कुम्हारी रहे सदा सलामत !!!


कान्ता रॉय 
भोपाल

देखो कितने दीये जलाये हैं /कविता

घर के आंगन में मैने 
देखो कितने दीये जलाये हैं 
कुछ दीये आस्था के 
कुछ विश्वास के जलाये हैं 
घर के आंगन मे मैने 
सारे दीये जलाये हैं 
कुछ आशाओं के 
नाम जलाये 
कुछ आने वाली
 खुशियों के नाम 
कुछ मायुसी के भी नाम 
अजनबी से रिश्तों के 
कुछ टुटे डोर के नाम 
पराये हो चुके सपनो के भी   
कुछ दीप तेरे नाम की  भी जलाई  मैने 
कुछ उनके भी नाम के जलाये 
देखो मैने  सबके
नामों की  दीप जलाई  
घर के आंगन में 
 सारी दीप जलाई। 

कान्ता राॅय

देवी महालक्ष्मी /कविता




धनधान्य की अधिष्ठात्री 
तुम हो देवी महालक्ष्मी 
कमल पुष्प पर विराजित
गजगामिनी गजलक्ष्मी 
विध्न विनाशक श्री गणेश  
 सरस्वती तुम  मातेश्वरी 
कार्तिक मास पुण्य अमावस 
जन -जन मन हो जाये पावस 
कर ली तैयारी अराधना की 
 रात्रि पावन मनोकामना की 
रौशनी  दीपमालाओं की  
संतप्त अंधकार पर 
पर्व यह विजय प्रकाश की 
खील बताशे और फुलझडियाँ 
सज रही प्रकाश रंग तरंगनियाँ 
दीप ,रंगोली  हर द्वार सजे 
आतिशबाजी हर्षोल्लास रहें 
सुख समृद्धि सबके द्वार लगे 
दीपावली दीपों का हार लगे 

हैरी पोर्टर की दुनिया ( कविता )


हैरी पोर्टर की दुनिया में
वो रहता मसगूल
नोमिता और सिंगचेन बनकर
ही होना है मशहूर
वो कहता है माँ से
मुझे चाहिए माॅसमेलो
चावल दाल भूल कर
बन गया राईस केक का फैलो
खीर हलवा पूरी
अब हुई पुरानी बात
करना हो तो करो चाऊमिन पिज़्ज़ा
रोल वोल की बात
माँ बन गई माॅम
पापा का तो काम तमाम
ऐश और पिकाचू लेकर
याद रहा बस पोकीमोन
स्पाइडर मैन का जादू
ऐसा सर चढकर बोला
सुपर मैन और आयरन मैन
से एवेंजेर तक
सबका बन गया चेला
कहाँ गये विवेकानन्द ,
नेताजी सुभाष चंद्र से हीरो
बन गये इनके आदर्श
अब फिल्मिया हीरो
घट रहा है घुट रहा है
मासूमियत बचपन का
स्वभाव में रह गया बस
हरकत विडियो गेम सी
भटक रही है मरूभूमि में
मृगतृष्णा सा बचपन
सच की जमीन सरक गई
लड़कपन जिये उम्र पचपन
                  कान्ता राॅय
                     भोपाल

.चेहरा/लघुकथा


आधी रात को रोज की ही तरह आज भी नशे में धुत वो गली की तरफ मुड़ा । पोस्ट लाईट के मध्यम उजाले में सहमी सी लड़की पर जैसे ही नजर पड़ी , वह ठिठका ।
लड़की शायद उजाले की चाह में पोस्ट लाईट के खंभे से लगभग चिपकी हुई सी थी ।
करीब जाकर कुछ पूछने ही वाला था कि उसने अंगुली से अपने दाहिने तरफ इशारा किया । उसकी नजर वहां घूमी ।
चार लडके घूर रहे थे उसे । उनमें से एक को वो जानता था । लडका झेंप गया नजरें मिलते ही । अब चारों जा चुके थे ।
लड़की अब उससे भी सशंकित हो उठी थी, लेकिन उसकी अधेड़ावस्था के कारण विश्वास ....या अविश्वास ..... शायद !
" तुम इतनी रात को यहाँ कैसे और क्यों ?"
" मै अनाथाश्रम से भाग आई हूँ । वो लोग मुझे आज रात के लिए कही भेजने वाले थे । " दबी जुबान से वो बडी़ मुश्किल से कह पाई ।
"क्या..... ! अब कहाँ जाओगी ? "
" नहीं मालूम ! "
" मेरे घर चलोगी ? "
".........!"
" अब आखिरी बार पुछता हूँ , मेरे घर चलोगी हमेशा के लिए ? "
" जी " ....मोतियों सी लड़ी गालों पर ढुलक आई । गहन कुप्प अंधेरे से घबराई हुई थी ।
उसने झट लड़की का हाथ कसकर थामा और तेज कदमों से लगभग उसे घसीटते हुए घर की तरफ बढ़ चला । नशा हिरण हो चुका था ।
कुंडी खडकाने की भी जरूरत नहीं पडीं थी । उसके आने भर की आहट से दरवाजा खुल चुका था । वो भौंचक्की सी खड़ी रही ।
" ये लो , सम्भालो इसे ! बेटी लेकर आया हूँ हमारे लिए । अब हम बाँझ नहीं कहलायेंगे । "

कान्ता राॅय


प्यार/लघुकथा


पति को आॅफिस के लिये विदा करके ,सुबह की भाग - दौड़ निपटा पढने को अखबार उठाया , कि डोर बेल बज उठी ।
"इस वक्त कौन हो सकता है !" सोचते हुए दरवाजा खोला। उसे मानों साँप सूँघ गया । पल भर के लिये जैसे पूरी धरती ही हिल गई थी । सामने प्रतीक खड़ा था ।
"यहाँ कैसे ?" खुद को संयत करते हुए बस इतने ही शब्द उसके काँपते हुए होठों पर आकर ठहरे थे ।
"बनारस से हैदराबाद तुमको ढूँढते हुए बामुश्किल पहुँचा हूँ ।" वह बेतरतीब सा हो रहा था । सजीला सा प्रतीक जैसे कहीं खो गया था ।
"आओ अंदर, बैठो ,मै पानी लाती हूँ ।"
"नहीं , मुझे पानी नहीं चाहिए, मै तुम्हें लेने आया हूँ , चलो मेरे साथ । "
"मै कहाँ , मै अब नहीं चल सकती हूँ कहीं भी ।"
"क्यों, तुम तो मुझसे प्यार करती हो ना !"
"प्यार ! शायद दोस्ती के लिहाज़ से करती हूँ ।"
"तुम्हारी शादी जबरदस्ती हुई है ।हमें अलग किया गया है । तुम सिर्फ मुझे प्यार करती हो ।"
"नहीं, तुम गलत सोच रहे हो प्रतीक । मै उस वक्त भी तुमसे अधिक अपने मम्मी - पापा से प्यार करती थी ,इसलिए तो उनके प्यार के आगे तुम्हारे प्यार का वजूद कमजोर पड़ गया । "
"लेकिन जिस इंसान से तुम्हारी शादी हुई उससे प्यार ......"
"बस, अब आगे कुछ ना कहना , वो मेरे पति है और मै सबसे अधिक उन्हीं से प्यार करती हूँ ।उनसे मेरा जन्मों का नाता है । "
"और मै, मै कहाँ हूँ ? "
"तुम दोस्त हो ,तुम परिकथाओं के राजकुमार रहे हो मेरे लिए, जो महज कथाओं तक ही सिमटे रहते है हकीकत से कहीं कोसों दूर ।"
"अच्छा , तो मै अब चलता हूँ । तुमसे एकबार मिलना था सो मिल लिया । " बाहर आकर जेब में हाथ डाल टिकट फाड़ कर वहीं फेंक बिना पलटे वो निकल गया और वह जाते हुए उसे अपलक , उसके ओझल होने तक ,युँ ही ,वहीं ठिठकी निहारती रही ।


कान्ता राॅय
भोपाल

जिंदगी का मोह /लघुकथा


अनरवत यंत्रणा सहते हुए एक दिन उनके चंगुल से छूट कर भाग आई । कई महीने पहले अपहरण हुआ था उसका ... स्कूल से घर आते वक्त ...।
घर का दरवाजा नहीं खोला गया उसके लिये ।
पिंजरे में से मिठ्ठू ने चहचहा कर जरूर अपनी खुशी जाहिर की थी उसे देख कर ।
बहुत देर तक दरवाजे की कुंडियाँ खडकाती रही ...घंटों रो रोकर पुकारती रही । सन्नाटा पसरा हुआ था घर के अंदर .....मानो मातम मना रहे थे उसकी मौत का ।
वह दोषी नहीं थी इन परिस्थितियों के लिए ...!!
आखिर लौटना ही था उसे उसी काई और दुर्गंध में फिर से , जहाँ से भाग कर आई थी अपनो के पास ।
लौटते वक्त खिड़की ने चरमरा कर अपनी चुप्पी तोडी थी । खिड़की की ओट में माँ की सिसकियां भी सुनी थी ठहर कर उसने ।
सिसकियां लेते हुए एक हिचकी उसके गले में भी अटकी थी । उस दिन से वो अटकी हुई हिचकी आज तक गले में फाँस बनकर चुभती रहती है ।
कितना पाषाण हृदय है इस समाज का ...उस दिन महसूस हो गया था । वो परित्यक्ता आज भी हर बार उम्मीद लेकर निहारती है अपने उस स्वप्न नगरी को ...जहाँ उसके अपने अब उसके बिना ही जिंदगी जीते है । विचित्र सी मनःस्थिति ... त्याग दी गई समाज से ... परिवार से वह ... फिर भी मोह है कि छूटता ही नहीं ।
कान्ता राॅय भोपाल

घर की बात /लघुकथा



" मै इसे जान से मार दूंगा , इस बच्चे को ये ना जनेगी ! " रणधीर सिंह नें उसका गला दोनों हाथों से दबाते हुए कहा । उसकी आँखें बाहर ही निकल आती अगर जेठानी ने तुरंत ना छुड़ाया होता ।
आधी रात घर में कोहराम मचा हुआ था । गर्भवती रमा जो हाथ भर लम्बा घूँघट काढ़े घुमती रहती थी , वो आज सिर उघारे चंडी रूप धरे बेहाल थी ।
" शादी करके लाया तो मेरी जिम्मेदारी क्यों नहीं उठाई ? क्यों मेरे छाती पर सौत बिठाई , वो गलत नहीं था ?" रमा के क्रोध की चिन्गारी दहक कर , शोलों की लपक सी हो, घर भर को जलाने को आतुर थी ।
" मै चाहे जो करूं , मै मर्द हूँ , तु पूछने वाली कौन होती है ?"
" मैने बाहर जाकर जात - धर्म नहीं बिगाड़ लाई हूँ ,ये तेरे घर का ही वारिस है ,पूछ तेरे चाचा से । "
रणधीर सिंह को जैसे साँप सूँघ गया । चाचा की ओर देख घृणा से जोर से थूक बाहर दरवाजे से निकल गया ।
" घर की बात घर में ही रहने दो । मिट्टी डालो बात पर , सब ठीक है । बच्चा तो घर का ही है ना ! अब रात गई बात गई "- आँगन में खटिया पर लेटे - लेटे मौन होकर देर तक सब तमाशा देख, दादा नें खाँसते हुए आखिरी में अपना फरमान सुना दिये ।
कान्ता राॅय
भोपाल

विलुप्तता/लघुकथा


" जोगनिया नदी वाले रास्ते से ही चलना । मुझे नदी देखते हुए जाना है । " रिक्शे पर बैठते ही कौतूहल जगा था ।
" अरे ,जोगनिया नदी ! कितनी साल बाद आई हो बीबी जी ? ऊ तो , कब का मिट गई । "
" क्या ? नदी कैसे मिट सकती है भला ? " वो तड़प उठी  ।
गाँव की कितनी यादें थी जोगनिया नदी से जुड़ी हुई । बचपन , स्कूल , कुसुमा और गणेशिया । नदी के हिलोर में खेलेने पहुँच जाते जब भी मौका मिलता और पानी के रेले में कागज की कश्ती चलाना । आखिरी बार खेलने तब गई थी जब गणेशिया को जोंक ने धर लिया था । मार भी बहुत पड़ी थी । फिर तो माई ही स्कूल लेने और छोडने जाने लगी थी ।
रिक्शा अचानक चरमरा कर रूक गया ।
तन्द्रा टूटी ।
" हाँ ,बहुत साल बाद अबकी लौटी हूँ । कैसी सूखी ये नदी ,कुछ बताओगे ? "
" अरे , का बताये , भराव होते - होते उथली तो पहले ही हो चुकी थी और फैक्ट्री वालों को भी वहीं बसना था । वो देखो , आपकी जोगनिया नदी पर से उठता धुँआ ।"
चिमनी से उठता गहरा काला धुआँ उसकी छाती में आकर जैसे बैठ गया ।
" गाँव तो बचा हैै ना ? " घुट कर बस इतना ही पूछ पाई ।

कान्ता राॅय
भोपाल

फासले (लघुकथा )


गुलाबी साड़ी पहनी थी उसने , लेकिन होठों पर आज अपनी पसंदीदा गुलाबी लिपिस्टिक नहीं लगाई थी । जुड़े को कस कर बाँध लिया था , बिलकुल अपने जज्बातों की ही तरह ।
उससे मिलने गई थी । उसे अच्छी ना लगे ,सुंदर ना लगे वो , चाहती तो यही थी । लेकिन ना जाने क्यों , जरा सी ना चाहते हुए भी उसके निगाहों में , वो बेहद खूूबसूरत लगना चाहती थी ।
रूखे से हाथ लिये , नाखून नहीं रंगे थे , और तन को भी उस दिन नहीं महकाया था उस खूशबू से जिसमें वो अक्सर तर - बतर रहती थी ।
दूर ही दूर से , उसे देख कर लौट आने की उसकी सोच, धरी की धरी रह गई , जब नजर सामने खड़े उन पर पड़ी । कदम खुद ब खुद उनकी ओर बढ़ चले । मन्त्रमुग्ध सी देखती रही और वो भी टकटकी लगाए उसकी ओर प्यार से ,अभिमान से , आतुर हो मंद - मंद मुस्काते हुए देखते रहे ।
कैसा वो क्षण था , कैसे सारे प्रयास धराशायी हुए उससे दूर जाने की ।
होशो हवास खोकर उसके बाँहों में सिमट जाने को आतुर हुई कि दोनों के दरमियान फासले याद आ गये । दोनों एक - दूसरे को गहरी नजरों से देख , उल्टे कदमों से अपने -अपने घर को लौट चले ।

कान्ता राॅय
भोपाल

" वेल मेंटेन्ड अर्थ "/लघुकथा


चलते - चलते साँस थमने लगी और वह हाँफने लगा ।चारों तरफ सीमेंट कंक्रीट के जंगल में पशु-पक्षी रहित सिर्फ मानव एकमात्र प्रजाति ही नजर आ रही थे । वह हैरान था। वह घुट रहा था ।
तरक्की का चमकदार आसमान बिलकुल गर्म ताँबाई आभा लिये और रास्ते रजतवर्ण से चमक रहे थे । समस्त धरती कीचड़ और तालाबों से रहित सुव्यवस्थित थी । " वेल मेनटेन्ड अर्थ " यानि " पाॅलिश्ड दुनिया " ! 
शायद इसी का ख्वाब देखा गया हो कभी जो आज साकार है । वह अपनी टूटती हुई साँसों की डोरी थामे , आॅक्सीजन की तलाश में , माॅल दर माॅल भटक रहा था ।
" वेल मेन्टेन्ड अर्थ " का प्राणी , लेकिन पाॅल्यूशन फ्री ब्राँडेड आॅक्सीजन खरीदने के लिये " प्लास्टिक मनी " जरा कम पड़ गई । साँसों के लिए लोकल आॅक्सीजन के एक साधारण .सिलिंडर की तलाश में बेहाल था ।
जान मुश्किल में थी । पूर्व में पढी़ " पेट की आग " की कहानी याद आ गई उसे । सुना हैं कि "भूख " का विकल्प कभी पानी हुआ करता था गरीबों के लिए ।
गरीब के पेट की भूख अब साँस की भूख तक पहुँच गई । सीने में " मरोड़ " सी उठी । वह तड़प कर जमीन पर औंधे गिर पड़ा ।
लुँज - पुँज से अपने हाथ में , पिछली शताब्दी के कुछ आखिरी बचे पेड़ों की तस्वीर लिए , कातर नजरों से उनको देख जा रहा था , मानो उन पेड़ों से गुहार लगा रहा हो , लेकिन तस्वीर क्या कभी प्राणवायु देती है ? उसके छाती की अकड़न प्रयाण - बेला को निश्चित कर गई ।
सहसा वह पसीने - पसीने हो उठा। उसकी नींद खुल चुकी थी । भय से पीला जर्द चेहरा लिए , जिंदा वह , स्वंय की देह को छूकर आश्वस्त हुआ । बिस्तर से उठ बाहर की ओर देखा । " वेल मेन्टेंड अर्थ " होने से दुनिया अभी बची थी । नीम ,पीपल और जामुन के पत्ते मस्त हवाओं संग झूम रहे थे । अभी -अभी देखे ख़्वाब से वह अंदर तक डरा हुआ था।
फावड़ा ,गैती ले घर से निकल , सड़कों पर यहां - वहां अब वह बिना रुके जहाँ - तहाँ , गड्ढे ही गड्ढे खोदता रहा । कनेर , गुडहल और जाने कितने पेड़ों की शाखाओं का ढेर लगा कर जल्दी - जल्दी रोपे जा रहा था ।
" ये क्या जंगल ,कचरा लगा रखा है यहाँ ! पागल हो क्या ? "
" पागल ? हाँ ,मै पागल ! पूरी धरती पर फिर से जंगल का ख्वाब देखने वाला पागल । हा हा हा हा ......"

कान्ता राॅय
भोपाल

जोगी का जोग/लघुकथा


" कल ठेकेदारिनी भी कह रही थी अपने बेटे के लिए । कह रही थी कि रामायण बाँचती है , रसोई सम्भालती है और सुंदर भी है । ऐसी गुणी सुशील बहू भाग वालों को मिले । ठेकेदार साहब का भी मन है तेरे पर । "
" मेरा मन नहीं है शादी का । देखो अम्मू अब मंदिर आ गया ,वो रहे पुजारी जी ! "
" लो पुजारी जी ,सम्भालो इसे और जरा समझा- बुझाय के हमारे ऊपर एहसान करो आप । लडकी शादी के नाम पर नोंच खाने को दौडती है "
" इसे छोड़ जाओ , शाम की आरती के बाद ये घर पहुँच जायेगी । आप जाओ , मै समझा दूंगा ।" पुजारी को माथा टेक अम्मू निकल गई ।
" घर- परिवार त्याग बाबा कैसे रहते है आश्रम में ? यहाँ कोई औरत नहीं रहती ? "
आरती के बाद बाबा के पास श्रद्धा से बैठ वह पूछ बैठी ।
बाबा जोगी थे और वो भी जोग लेने की अभिलाषी । बहुत कुछ जानना था उसे जोग के बारे में ।
" आश्रम के लिए स्त्रियाँ ठीक नहीं । "
" क्यों भला ?"
" तपस्या भंग होने का डर रहता है इनका । "
" मतलब ? "
" भूख को मारते - मारते कभी भोजन पर कैसे आदमी टूट पडता है और व्रत टूट जाता है ! " कहते हुए बाबा के चेहरे पर आते - जाते कई रंग देख वह अंदर तक काँप उठी ।
" बाबा , अम्मू राह तक रही होगी , मै कल फिर आऊँगी । " झटके से उठ वहाँ से राह पकड़ तेज कदमों से एक ही साँस में घर पहुँच अम्मू से लिपट गई ।
" अम्मू , ठेकेदार का लडका मुझे पसंद है , तु शादी की बात चला दे । "


कान्ता राॅय
भोपाल

अमीरों की बैसाखी (लघुकथा)


" तुम्हारे नम्बर तो मुझसे कम आये थे ना ! फिर ये एडमिशन .... ? "
" रहने दो अब ये सब पूछना - पूछाना ,लो पहले मिठाई खाओ , आखिर तुम्हारा जिगरी दोस्त तो डाक्टर बन रहा है ना ! "
" मतलब ? "
" अरे नहीं समझे अब तक क्या ! वही पुरानी शिक्षा नीति की घटिया चालबाज़ी , डोनेशन ! और क्या ! "
" लेकिन तुम तो कहते थे डोनेशन देकर नहीं पढोगे । अपने कोशिशों की नैया पर सवार रहोगे ! सो , उसका क्या ? "
" कोशिशों की नैया ! हा हा हा हा ....वो सब स्कूली बातें थी । "
" स्कूली बातें ! हाँ , सही कह रहे हो यार , गरीबों के शरीर पर कोढ़ बन चिपका ये डोनेशन ! अमीरों की बैसाखी ही है उनको विद्वान और प्रतिष्ठित बनाने की । "

क्यों वो अकेली / लघुकथा


नाट्यशाला की गहमागहमी से ही समझ में आ रहा था कि आज मंजे हुए कलाकारों की खास प्रस्तुति होनी है ।
सुहासिनी जी की मुख्य भूमिका में आज उनकी टीम का ऐतिहासिक रंगमंच प्रस्तुतीकरण था ।
नियत समय पर पर्दा उठते ही सुहासिनी जी स्टेज पर बडी़ कुशलता से नृत्य की शुरुआत करी । अपने सहभागियों की प्रस्तुति के लिए नदारद देख , वो चिंतित थी ।
सामने विशाल दर्शक दीर्धा और वह अकेली । स्तब्ध सी अब नाटिका की कर्णधार बन मगन वो , एक साँस में ही समस्त पात्रों को अपने नृत्य में उतार देर तक नाचती रही। तालियों से नाट्यशाला गुँजा उठा ।
मिडिया कर्मियों द्वारा बखानी जाने पर मालूम हुआ कि उसके द्वारा एकल नृत्य नाटिका में नृत्य का कोई नया मिशाल आज कायम हुआ है ।
लेकिन सुहासिनी जी की निगाहें भीड़ में दूर तलक अपनों के चेहरों को तलाश रही थी ।
कान्ता राॅय
भोपाल

राम का नाम/लघुकथा


" सुना है बापू जी का पुनर्जन्म होने वाला है इस साल ।"
" क्या कह रहे हो ?"
" अरे हाँ , दुनिया के ज्योत्षियों ने ही गणना करके ये सामाचार जारी किये है "
" भाई फिर तो अपनी निकल पडी समझो ! "
" वो कैसे भला ? "
" वो तो राम राम ही भजते है , और हमारी राजनीति तो राम के नाम पर ही चलती है । "

कान्ता राॅय
भोपाल

सिटी आॅफ जाॅय/लघुकथा


हाथ में धुंघरू बजाते हुए बाढ़ की पानी में भी रिक्शे पर सवारी को ढोता हुआ बैचेन सा दौडता चला जा था गंतव्य की ओर , लेकिन आने वाले दिनों के लिए पेट की चिंता व्याकुल किये जा रही थी ।
कल बाग बाजार की सवारी लेकर जाते हुए उनकी बातों से मालूम हुआ कि रिक्शेवालों की वजह से शहर नोंगरा ( गंदा ) हो रहा है । मेयर शहर से रिक्शा हटाने पर विचार कर रहे है ।
भूख की हाँडी को यहाँ की माटी ने भात देने से शायद अब इंकार कर दिया ।
" आह रे , सिटी आॅफ जाॅय ! जाॅय , की बोरो लोक के ई दिबी ? " ( जाॅय क्या बडे लोगों को ही दोगी ? )
" क्या हुआ दादा ? कहाँ खोये हुए हो रिक्शे को खींचते हुए ? "
" की बोलेगा रे साहिब , सुने हैं , कोलकाता अब रिक्शे वालों को प्रश्रय नहीं देगी ?"
" एटा की पागलामी रे बाबा ! क्या सब सोच रहे है ? ये रिक्शा और ट्राम तो संस्कृति है कोलकाता का , ये कभी नहीं जायेगा , बुझले की ! "

कान्ता राॅय
भोपाल

जोड़ का तोड़ (लघुकथा )


पूरे पच्चीस हजार ! ठीक से गिनकर रूपये पर्स में रखे उसने ।
किटी पार्टी खत्म होते ही उमंग भरी तेज कदमों से पर्स को हाथों में भींच घर की तरफ निकल पड़ी ।
पच्चीस महीने में एक बार ये अवसर आता है । हर महीने घर- खर्च से बचा बचा कर ही यहाँ पैसे भरती रही है ।
" माँ ,आ गई तुम , क्या इस बार भी नहीं खुली तुम्हारी किटी ? "
" खुल गई , देख ! "
" अब तो मेरा कम्प्यूटर आ जायेगा ना ? "
" हाँ , अब उतावली ना हो ,आ जायेगा । "
" देखना माँ ,अबकी बार कम्प्यूटर साइंस में भी सबसे अधिक नम्बर होंगे मेरे ! " वसुधा के आँखों में नई उम्मीदों के सपने पलते देख मन विभोर हो उठा । ममता से भरी हुई वह वसुधा के समीप जा उसका माथा चुम लिया ।
" क्या हुआ किटी खुल गई तुम्हारी ? "
" जी ! "
" लाओ , मुझे दो , कुछ और शेयर खरीदने के काम आयेंगे । "
" लेकिन , ये पैसे तो वसुधा के कम्प्यूटर के लिए जोड़े है बडी़ मुश्किल से किटी के बहाने । "
" वसुधा के लिये कम्प्यूटर ! उसको तो पराये घर जाना है , उसके लिए ये फालतू के खर्च .... ! "
कान्ता राॅय
भोपाल

अवलम्ब (लघुकथा)


" अभी जो बाहर निकल कर गई वो अनुराधा ही थी ना ? " उसको बडा अटपटा सा लगा उसे यहाँ देख कर तो अंदर आते ही एकदम से पूछ बैठी ।
" हूँ "
" हूँ , मतलब क्या दिव्या ! वह तेरे पति की गर्ल फ्रेंड है और तुमने उसे अपने घर आने दिया ! "
" अच्छा है ना , पति की गर्ल फ्रेंड अब मेरी भी गर्ल फ्रेंड ! पति अब उससे छुपकर नहीं मिलता है और यहाँ मेरा भी .....। "
" मै समझी नहीं , मतलब , मेरा भी क्या ? "
" पति उसके संग मुझे भी ..... , समझती क्यों नहीं , बिना अवलम्बन के उनके बिना तलाक लेकर कहाँ - कहाँ भटकती इस व्यस्क उम्र में , तो यहीं सही । "

कान्ता राॅय
भोपाल

पथ का चुनाव/लघुकथा


आज फिर किसी विधुर का प्रस्ताव आया है । मन सिहर उठा जवान बच्चों की माँ बनने के ख्याल से ही ।
इस रिश्ते को भी ना कह कर अपने धनहीन दुर्बल पिता को संताप दूँ , या बन जाऊँ हमउम्र बच्चों की माँ । सुना है तहसीलदार है । शायद पिता की वे मदद भी करें उनकी दुसरी बेटियों के निर्वाह में ।
आज काॅलेज में भी मन नहीं लगा था । घर की तरफ जाते हुए पैरों में कम्पन महसूस की थी उसने ।
घंटे की टनकार, मंदिर से उठता हवन का धुँआ , कदम वहीं को मुड़ गये ।
ऊपर २५० सीढ़ियाँ , ऐसे चढ़ गई जैसे सारी साँसें आज इन्हीं को सुपुर्द करनी है ।
पहाड़ पर ऊपर मंदिर के , चारों ओर खाई । बिलकुल किनारे मुंडेर पर जाकर खड़ी हो गई । क्या करें , नीचे खाई में कूद जाये , या वापस घर जाकर तहसीलदार के बच्चों की माँ बने , या अपनी बी. ए. की पढ़ाई पूरी कर कोई ट्यूशन , या नौकरी ।
हथेलियों में पसीना भर आया और आँखों में आँसू । उसने महसूस किया कि वह किसी भी हाल में जिंदा रहना चाहती है । वह मरना नहीं चाहती । मंदिर की घंटी अब शांत हो चुकी थी ।
चढ़ाई से दुगुना जोश उसका अब सीढ़ियों से उतरने में था । साँसें काबू में थी ।
" पापा , मै तब तक शादी नहीं करूँगी जब तक कोई नौकरी ना मिले मुझे । " आस्तित्व के प्रति धर्माचरण का पालन करते हुए ,अब दृढ़ता से अपने पथ का चुनाव कर चुकी थी ।


कान्ता राॅय
भोपाल