गुरुवार, 12 नवंबर 2015

जिंदगी का मोह /लघुकथा


अनरवत यंत्रणा सहते हुए एक दिन उनके चंगुल से छूट कर भाग आई । कई महीने पहले अपहरण हुआ था उसका ... स्कूल से घर आते वक्त ...।
घर का दरवाजा नहीं खोला गया उसके लिये ।
पिंजरे में से मिठ्ठू ने चहचहा कर जरूर अपनी खुशी जाहिर की थी उसे देख कर ।
बहुत देर तक दरवाजे की कुंडियाँ खडकाती रही ...घंटों रो रोकर पुकारती रही । सन्नाटा पसरा हुआ था घर के अंदर .....मानो मातम मना रहे थे उसकी मौत का ।
वह दोषी नहीं थी इन परिस्थितियों के लिए ...!!
आखिर लौटना ही था उसे उसी काई और दुर्गंध में फिर से , जहाँ से भाग कर आई थी अपनो के पास ।
लौटते वक्त खिड़की ने चरमरा कर अपनी चुप्पी तोडी थी । खिड़की की ओट में माँ की सिसकियां भी सुनी थी ठहर कर उसने ।
सिसकियां लेते हुए एक हिचकी उसके गले में भी अटकी थी । उस दिन से वो अटकी हुई हिचकी आज तक गले में फाँस बनकर चुभती रहती है ।
कितना पाषाण हृदय है इस समाज का ...उस दिन महसूस हो गया था । वो परित्यक्ता आज भी हर बार उम्मीद लेकर निहारती है अपने उस स्वप्न नगरी को ...जहाँ उसके अपने अब उसके बिना ही जिंदगी जीते है । विचित्र सी मनःस्थिति ... त्याग दी गई समाज से ... परिवार से वह ... फिर भी मोह है कि छूटता ही नहीं ।
कान्ता राॅय भोपाल

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