गुरुवार, 12 नवंबर 2015

जोगी का जोग/लघुकथा


" कल ठेकेदारिनी भी कह रही थी अपने बेटे के लिए । कह रही थी कि रामायण बाँचती है , रसोई सम्भालती है और सुंदर भी है । ऐसी गुणी सुशील बहू भाग वालों को मिले । ठेकेदार साहब का भी मन है तेरे पर । "
" मेरा मन नहीं है शादी का । देखो अम्मू अब मंदिर आ गया ,वो रहे पुजारी जी ! "
" लो पुजारी जी ,सम्भालो इसे और जरा समझा- बुझाय के हमारे ऊपर एहसान करो आप । लडकी शादी के नाम पर नोंच खाने को दौडती है "
" इसे छोड़ जाओ , शाम की आरती के बाद ये घर पहुँच जायेगी । आप जाओ , मै समझा दूंगा ।" पुजारी को माथा टेक अम्मू निकल गई ।
" घर- परिवार त्याग बाबा कैसे रहते है आश्रम में ? यहाँ कोई औरत नहीं रहती ? "
आरती के बाद बाबा के पास श्रद्धा से बैठ वह पूछ बैठी ।
बाबा जोगी थे और वो भी जोग लेने की अभिलाषी । बहुत कुछ जानना था उसे जोग के बारे में ।
" आश्रम के लिए स्त्रियाँ ठीक नहीं । "
" क्यों भला ?"
" तपस्या भंग होने का डर रहता है इनका । "
" मतलब ? "
" भूख को मारते - मारते कभी भोजन पर कैसे आदमी टूट पडता है और व्रत टूट जाता है ! " कहते हुए बाबा के चेहरे पर आते - जाते कई रंग देख वह अंदर तक काँप उठी ।
" बाबा , अम्मू राह तक रही होगी , मै कल फिर आऊँगी । " झटके से उठ वहाँ से राह पकड़ तेज कदमों से एक ही साँस में घर पहुँच अम्मू से लिपट गई ।
" अम्मू , ठेकेदार का लडका मुझे पसंद है , तु शादी की बात चला दे । "


कान्ता राॅय
भोपाल

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