गुरुवार, 12 नवंबर 2015

.चेहरा/लघुकथा


आधी रात को रोज की ही तरह आज भी नशे में धुत वो गली की तरफ मुड़ा । पोस्ट लाईट के मध्यम उजाले में सहमी सी लड़की पर जैसे ही नजर पड़ी , वह ठिठका ।
लड़की शायद उजाले की चाह में पोस्ट लाईट के खंभे से लगभग चिपकी हुई सी थी ।
करीब जाकर कुछ पूछने ही वाला था कि उसने अंगुली से अपने दाहिने तरफ इशारा किया । उसकी नजर वहां घूमी ।
चार लडके घूर रहे थे उसे । उनमें से एक को वो जानता था । लडका झेंप गया नजरें मिलते ही । अब चारों जा चुके थे ।
लड़की अब उससे भी सशंकित हो उठी थी, लेकिन उसकी अधेड़ावस्था के कारण विश्वास ....या अविश्वास ..... शायद !
" तुम इतनी रात को यहाँ कैसे और क्यों ?"
" मै अनाथाश्रम से भाग आई हूँ । वो लोग मुझे आज रात के लिए कही भेजने वाले थे । " दबी जुबान से वो बडी़ मुश्किल से कह पाई ।
"क्या..... ! अब कहाँ जाओगी ? "
" नहीं मालूम ! "
" मेरे घर चलोगी ? "
".........!"
" अब आखिरी बार पुछता हूँ , मेरे घर चलोगी हमेशा के लिए ? "
" जी " ....मोतियों सी लड़ी गालों पर ढुलक आई । गहन कुप्प अंधेरे से घबराई हुई थी ।
उसने झट लड़की का हाथ कसकर थामा और तेज कदमों से लगभग उसे घसीटते हुए घर की तरफ बढ़ चला । नशा हिरण हो चुका था ।
कुंडी खडकाने की भी जरूरत नहीं पडीं थी । उसके आने भर की आहट से दरवाजा खुल चुका था । वो भौंचक्की सी खड़ी रही ।
" ये लो , सम्भालो इसे ! बेटी लेकर आया हूँ हमारे लिए । अब हम बाँझ नहीं कहलायेंगे । "

कान्ता राॅय


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