गुरुवार, 12 नवंबर 2015

विलुप्तता/लघुकथा


" जोगनिया नदी वाले रास्ते से ही चलना । मुझे नदी देखते हुए जाना है । " रिक्शे पर बैठते ही कौतूहल जगा था ।
" अरे ,जोगनिया नदी ! कितनी साल बाद आई हो बीबी जी ? ऊ तो , कब का मिट गई । "
" क्या ? नदी कैसे मिट सकती है भला ? " वो तड़प उठी  ।
गाँव की कितनी यादें थी जोगनिया नदी से जुड़ी हुई । बचपन , स्कूल , कुसुमा और गणेशिया । नदी के हिलोर में खेलेने पहुँच जाते जब भी मौका मिलता और पानी के रेले में कागज की कश्ती चलाना । आखिरी बार खेलने तब गई थी जब गणेशिया को जोंक ने धर लिया था । मार भी बहुत पड़ी थी । फिर तो माई ही स्कूल लेने और छोडने जाने लगी थी ।
रिक्शा अचानक चरमरा कर रूक गया ।
तन्द्रा टूटी ।
" हाँ ,बहुत साल बाद अबकी लौटी हूँ । कैसी सूखी ये नदी ,कुछ बताओगे ? "
" अरे , का बताये , भराव होते - होते उथली तो पहले ही हो चुकी थी और फैक्ट्री वालों को भी वहीं बसना था । वो देखो , आपकी जोगनिया नदी पर से उठता धुँआ ।"
चिमनी से उठता गहरा काला धुआँ उसकी छाती में आकर जैसे बैठ गया ।
" गाँव तो बचा हैै ना ? " घुट कर बस इतना ही पूछ पाई ।

कान्ता राॅय
भोपाल

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