गुरुवार, 12 नवंबर 2015

आईना ठुकराता नहीं/कविता

आइने की विशालता
आईने की शख्सियत 
आईना ठुकराता नहीं
सबको समा लेता है
जब चाहो आईने में
अपना वास देख लो
अपनी जगह दूजे का भी
जब चाहो निवास देख लो
वो किसी एक का नहीं
वो सबका होता है
जब जो मिल जाए
आईना सबको मान देता है
नहीं समेटता अपने अंदर
उनके जज़्बातों को
उनके हटते ही
किसी और को
समां लेता है अपने अंदर
मानो उसके जाने का
जैसे इंतज़ार था
लौट आने से भी
उसके एतराज़ नही
संवेदनाये नहीं
वो पत्थर है
वो भूलती नहीं
अपनी शख्सियत
वो भूलती नहीं
अपनी हैसियत
कान्ता रॉय (11.11.2015 /2;20 pm)

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