गुरुवार, 12 नवंबर 2015

" वेल मेंटेन्ड अर्थ "/लघुकथा


चलते - चलते साँस थमने लगी और वह हाँफने लगा ।चारों तरफ सीमेंट कंक्रीट के जंगल में पशु-पक्षी रहित सिर्फ मानव एकमात्र प्रजाति ही नजर आ रही थे । वह हैरान था। वह घुट रहा था ।
तरक्की का चमकदार आसमान बिलकुल गर्म ताँबाई आभा लिये और रास्ते रजतवर्ण से चमक रहे थे । समस्त धरती कीचड़ और तालाबों से रहित सुव्यवस्थित थी । " वेल मेनटेन्ड अर्थ " यानि " पाॅलिश्ड दुनिया " ! 
शायद इसी का ख्वाब देखा गया हो कभी जो आज साकार है । वह अपनी टूटती हुई साँसों की डोरी थामे , आॅक्सीजन की तलाश में , माॅल दर माॅल भटक रहा था ।
" वेल मेन्टेन्ड अर्थ " का प्राणी , लेकिन पाॅल्यूशन फ्री ब्राँडेड आॅक्सीजन खरीदने के लिये " प्लास्टिक मनी " जरा कम पड़ गई । साँसों के लिए लोकल आॅक्सीजन के एक साधारण .सिलिंडर की तलाश में बेहाल था ।
जान मुश्किल में थी । पूर्व में पढी़ " पेट की आग " की कहानी याद आ गई उसे । सुना हैं कि "भूख " का विकल्प कभी पानी हुआ करता था गरीबों के लिए ।
गरीब के पेट की भूख अब साँस की भूख तक पहुँच गई । सीने में " मरोड़ " सी उठी । वह तड़प कर जमीन पर औंधे गिर पड़ा ।
लुँज - पुँज से अपने हाथ में , पिछली शताब्दी के कुछ आखिरी बचे पेड़ों की तस्वीर लिए , कातर नजरों से उनको देख जा रहा था , मानो उन पेड़ों से गुहार लगा रहा हो , लेकिन तस्वीर क्या कभी प्राणवायु देती है ? उसके छाती की अकड़न प्रयाण - बेला को निश्चित कर गई ।
सहसा वह पसीने - पसीने हो उठा। उसकी नींद खुल चुकी थी । भय से पीला जर्द चेहरा लिए , जिंदा वह , स्वंय की देह को छूकर आश्वस्त हुआ । बिस्तर से उठ बाहर की ओर देखा । " वेल मेन्टेंड अर्थ " होने से दुनिया अभी बची थी । नीम ,पीपल और जामुन के पत्ते मस्त हवाओं संग झूम रहे थे । अभी -अभी देखे ख़्वाब से वह अंदर तक डरा हुआ था।
फावड़ा ,गैती ले घर से निकल , सड़कों पर यहां - वहां अब वह बिना रुके जहाँ - तहाँ , गड्ढे ही गड्ढे खोदता रहा । कनेर , गुडहल और जाने कितने पेड़ों की शाखाओं का ढेर लगा कर जल्दी - जल्दी रोपे जा रहा था ।
" ये क्या जंगल ,कचरा लगा रखा है यहाँ ! पागल हो क्या ? "
" पागल ? हाँ ,मै पागल ! पूरी धरती पर फिर से जंगल का ख्वाब देखने वाला पागल । हा हा हा हा ......"

कान्ता राॅय
भोपाल

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