गुरुवार, 12 नवंबर 2015

पथ का चुनाव/लघुकथा


आज फिर किसी विधुर का प्रस्ताव आया है । मन सिहर उठा जवान बच्चों की माँ बनने के ख्याल से ही ।
इस रिश्ते को भी ना कह कर अपने धनहीन दुर्बल पिता को संताप दूँ , या बन जाऊँ हमउम्र बच्चों की माँ । सुना है तहसीलदार है । शायद पिता की वे मदद भी करें उनकी दुसरी बेटियों के निर्वाह में ।
आज काॅलेज में भी मन नहीं लगा था । घर की तरफ जाते हुए पैरों में कम्पन महसूस की थी उसने ।
घंटे की टनकार, मंदिर से उठता हवन का धुँआ , कदम वहीं को मुड़ गये ।
ऊपर २५० सीढ़ियाँ , ऐसे चढ़ गई जैसे सारी साँसें आज इन्हीं को सुपुर्द करनी है ।
पहाड़ पर ऊपर मंदिर के , चारों ओर खाई । बिलकुल किनारे मुंडेर पर जाकर खड़ी हो गई । क्या करें , नीचे खाई में कूद जाये , या वापस घर जाकर तहसीलदार के बच्चों की माँ बने , या अपनी बी. ए. की पढ़ाई पूरी कर कोई ट्यूशन , या नौकरी ।
हथेलियों में पसीना भर आया और आँखों में आँसू । उसने महसूस किया कि वह किसी भी हाल में जिंदा रहना चाहती है । वह मरना नहीं चाहती । मंदिर की घंटी अब शांत हो चुकी थी ।
चढ़ाई से दुगुना जोश उसका अब सीढ़ियों से उतरने में था । साँसें काबू में थी ।
" पापा , मै तब तक शादी नहीं करूँगी जब तक कोई नौकरी ना मिले मुझे । " आस्तित्व के प्रति धर्माचरण का पालन करते हुए ,अब दृढ़ता से अपने पथ का चुनाव कर चुकी थी ।


कान्ता राॅय
भोपाल

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