गुरुवार, 12 नवंबर 2015

जोड़ का तोड़ (लघुकथा )


पूरे पच्चीस हजार ! ठीक से गिनकर रूपये पर्स में रखे उसने ।
किटी पार्टी खत्म होते ही उमंग भरी तेज कदमों से पर्स को हाथों में भींच घर की तरफ निकल पड़ी ।
पच्चीस महीने में एक बार ये अवसर आता है । हर महीने घर- खर्च से बचा बचा कर ही यहाँ पैसे भरती रही है ।
" माँ ,आ गई तुम , क्या इस बार भी नहीं खुली तुम्हारी किटी ? "
" खुल गई , देख ! "
" अब तो मेरा कम्प्यूटर आ जायेगा ना ? "
" हाँ , अब उतावली ना हो ,आ जायेगा । "
" देखना माँ ,अबकी बार कम्प्यूटर साइंस में भी सबसे अधिक नम्बर होंगे मेरे ! " वसुधा के आँखों में नई उम्मीदों के सपने पलते देख मन विभोर हो उठा । ममता से भरी हुई वह वसुधा के समीप जा उसका माथा चुम लिया ।
" क्या हुआ किटी खुल गई तुम्हारी ? "
" जी ! "
" लाओ , मुझे दो , कुछ और शेयर खरीदने के काम आयेंगे । "
" लेकिन , ये पैसे तो वसुधा के कम्प्यूटर के लिए जोड़े है बडी़ मुश्किल से किटी के बहाने । "
" वसुधा के लिये कम्प्यूटर ! उसको तो पराये घर जाना है , उसके लिए ये फालतू के खर्च .... ! "
कान्ता राॅय
भोपाल

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