गुरुवार, 12 नवंबर 2015

आखिरी स्टेशन का मुसाफिर/कविता

जिंदगी रेल सी
दौडती हुई
भागती हुई
स्टेशन दर स्टेशन
सरक कर रूकती हुई
चढते मुसाफिर
उतरते मुसाफिर
रेलम की पेल में
यादों का कारवां
सीट के नीचे दबकर
रह जाता है
ट्रेन में बैठा
आखिरी स्टेशन का मुसाफिर
सब देखता हुआ
कुछ सोचता हुआ
बैठा रहता है अकेले
साथ बैठ कर
मुँगफली खाते हुए
चाय के सकोरे के संग
बनाए हुए कुछ रिश्ते ,
कुछ संवाद और समस्त संवेदनाओं को
अपने बैग में कस कर
कंधे पर डाल
बीच स्टेशन का मुसाफिर
उतर जाता है
ले जाता है डब्बे की
कुछ दास्तान अपने संग
बदले में सीट के नीचे
बहुत कुछ अपना छोड़ जाता है
देखता रहता है
सोचता रहता है
बैठा रहता है अकेले
आखिरी स्टेशन का मुसाफिर
आखिरी स्टेशन आने से पहले
एक सन्नाटा सा
ट्रेन की बोगी में
भर जाता है
यादों के काफिले के संग
गाड़ी सरक कर
आखिरी स्टेशन पर
पहुँच जाती है
प्रतीक्षा करते हुए
बेसब्री से
अपने लोगों को
देखते ही वह ट्रेन के
आखिरी स्टेशन का मुसाफिर
रम जाता है
चहकते हुए महकते हुए
अपने लोगों में स्वंय को
दुरूस्त पाता है
गंतव्य पर आते ही
मुसाफ़िरों की यादों को वह भी
उसी सीट के नीचे छोड़ आता है
उन यादों को वह भी
उसी सीट के नीचे छोड़ आता है
कान्ता राॅय

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