गुरुवार, 12 नवंबर 2015

घर की बात /लघुकथा



" मै इसे जान से मार दूंगा , इस बच्चे को ये ना जनेगी ! " रणधीर सिंह नें उसका गला दोनों हाथों से दबाते हुए कहा । उसकी आँखें बाहर ही निकल आती अगर जेठानी ने तुरंत ना छुड़ाया होता ।
आधी रात घर में कोहराम मचा हुआ था । गर्भवती रमा जो हाथ भर लम्बा घूँघट काढ़े घुमती रहती थी , वो आज सिर उघारे चंडी रूप धरे बेहाल थी ।
" शादी करके लाया तो मेरी जिम्मेदारी क्यों नहीं उठाई ? क्यों मेरे छाती पर सौत बिठाई , वो गलत नहीं था ?" रमा के क्रोध की चिन्गारी दहक कर , शोलों की लपक सी हो, घर भर को जलाने को आतुर थी ।
" मै चाहे जो करूं , मै मर्द हूँ , तु पूछने वाली कौन होती है ?"
" मैने बाहर जाकर जात - धर्म नहीं बिगाड़ लाई हूँ ,ये तेरे घर का ही वारिस है ,पूछ तेरे चाचा से । "
रणधीर सिंह को जैसे साँप सूँघ गया । चाचा की ओर देख घृणा से जोर से थूक बाहर दरवाजे से निकल गया ।
" घर की बात घर में ही रहने दो । मिट्टी डालो बात पर , सब ठीक है । बच्चा तो घर का ही है ना ! अब रात गई बात गई "- आँगन में खटिया पर लेटे - लेटे मौन होकर देर तक सब तमाशा देख, दादा नें खाँसते हुए आखिरी में अपना फरमान सुना दिये ।
कान्ता राॅय
भोपाल

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