गुरुवार, 12 नवंबर 2015

फासले (लघुकथा )


गुलाबी साड़ी पहनी थी उसने , लेकिन होठों पर आज अपनी पसंदीदा गुलाबी लिपिस्टिक नहीं लगाई थी । जुड़े को कस कर बाँध लिया था , बिलकुल अपने जज्बातों की ही तरह ।
उससे मिलने गई थी । उसे अच्छी ना लगे ,सुंदर ना लगे वो , चाहती तो यही थी । लेकिन ना जाने क्यों , जरा सी ना चाहते हुए भी उसके निगाहों में , वो बेहद खूूबसूरत लगना चाहती थी ।
रूखे से हाथ लिये , नाखून नहीं रंगे थे , और तन को भी उस दिन नहीं महकाया था उस खूशबू से जिसमें वो अक्सर तर - बतर रहती थी ।
दूर ही दूर से , उसे देख कर लौट आने की उसकी सोच, धरी की धरी रह गई , जब नजर सामने खड़े उन पर पड़ी । कदम खुद ब खुद उनकी ओर बढ़ चले । मन्त्रमुग्ध सी देखती रही और वो भी टकटकी लगाए उसकी ओर प्यार से ,अभिमान से , आतुर हो मंद - मंद मुस्काते हुए देखते रहे ।
कैसा वो क्षण था , कैसे सारे प्रयास धराशायी हुए उससे दूर जाने की ।
होशो हवास खोकर उसके बाँहों में सिमट जाने को आतुर हुई कि दोनों के दरमियान फासले याद आ गये । दोनों एक - दूसरे को गहरी नजरों से देख , उल्टे कदमों से अपने -अपने घर को लौट चले ।

कान्ता राॅय
भोपाल

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