गुरुवार, 12 नवंबर 2015

मेरे मोहम्मद और मेरे नारायण/लघुकथा

अंग्रेजी हुकूमत के अधिकारी की तरह उसने लगभग गुर्राते हुए पुछा ,
 "आप ईदगाह में इन नमाज़ियों के बीच क्या कर रहे है "
" मैं यहां नमाज़ अदा फरमाने आया हूँ "
"क्यों , आप तो हिन्दू हो··· !"
"जी , मैं हिन्दू तो हूँ लेकिन मुझे एक बीमारी है। "
"बीमारी है तो डॉक्टर के पास जाओ , यहां क्या कर रहे हो ?"
" मेरी बीमारी का इलाज़ मेरे मोहम्मद और मेरे नारायण के पास ही है। "
"मेरे मोहम्मद और मेरे नारायण ········? चलो अब पहेलियाँ न बुझाओ , विस्तार से बताओ जरा "
" मैं जब पूजा करता हूँ तो मोहम्मद दिखाई देते है और नमाज़ पढता हूँ तो नारायण दिखाई देते है , इसलिए मैंने रमजान में मोहम्मद में वास करते नारायण के लिए रोज़े रखे है तो आज मैं उनका ही नमाज़ी हूँ। "


कान्ता रॉय
भोपाल

आस/कविता


स्नेह के आँचल तले
एक बीज बोया था
आस की अभिलाष पाले
एक भूल बोयी थी
नींद से जागते ही
उम्मीदों के जल से
रोज सींचा करती थी
रोज आँखों से
नापती थी उसको
टक टकी लगा कर
रोज सोचा करती थी
आने वाला कल हरा होगा
आँचल मेरा भरा होगा
उम्मीदों की क्यारियाँ सजेंगी
जीवन कलियाँ ,पँखुडियाँ होंगी
मौसम ने ली अँगड़ाई
आस अभिलाष की हुई लड़ाई
खूब गरजी खूब बरसी
बाग बगीचे कर गई मिट्टी
हो गये सब गिट्टी गिट्टी
नमक डाल कर बोझल कर गयी
सपने सारे ओझल कर गयी
आस हो गई जल थल ,जल थल
टीस रह गई पल पल ,पल पल
ढूंढ रही हूँ दोमट मिट्टी
काली कादो कीचड़ मिट्टी
फिर रही हूँ आँचल आँचल
बीज की अभिलाष लिये
एक नई फिर आस लिये ॥
कान्ता राॅय
भोपाल

आखिरी स्टेशन का मुसाफिर/कविता

जिंदगी रेल सी
दौडती हुई
भागती हुई
स्टेशन दर स्टेशन
सरक कर रूकती हुई
चढते मुसाफिर
उतरते मुसाफिर
रेलम की पेल में
यादों का कारवां
सीट के नीचे दबकर
रह जाता है
ट्रेन में बैठा
आखिरी स्टेशन का मुसाफिर
सब देखता हुआ
कुछ सोचता हुआ
बैठा रहता है अकेले
साथ बैठ कर
मुँगफली खाते हुए
चाय के सकोरे के संग
बनाए हुए कुछ रिश्ते ,
कुछ संवाद और समस्त संवेदनाओं को
अपने बैग में कस कर
कंधे पर डाल
बीच स्टेशन का मुसाफिर
उतर जाता है
ले जाता है डब्बे की
कुछ दास्तान अपने संग
बदले में सीट के नीचे
बहुत कुछ अपना छोड़ जाता है
देखता रहता है
सोचता रहता है
बैठा रहता है अकेले
आखिरी स्टेशन का मुसाफिर
आखिरी स्टेशन आने से पहले
एक सन्नाटा सा
ट्रेन की बोगी में
भर जाता है
यादों के काफिले के संग
गाड़ी सरक कर
आखिरी स्टेशन पर
पहुँच जाती है
प्रतीक्षा करते हुए
बेसब्री से
अपने लोगों को
देखते ही वह ट्रेन के
आखिरी स्टेशन का मुसाफिर
रम जाता है
चहकते हुए महकते हुए
अपने लोगों में स्वंय को
दुरूस्त पाता है
गंतव्य पर आते ही
मुसाफ़िरों की यादों को वह भी
उसी सीट के नीचे छोड़ आता है
उन यादों को वह भी
उसी सीट के नीचे छोड़ आता है
कान्ता राॅय

विपरीत समय काल /कविता

शोर उठा
रावण जल रहा है
आँखें फाड़ -फाड़
चारों ओर देखा
क्यों बार - बार
राम ही जलते हुए
दिखाई दिये
रावण नहीं वहाँ तो
राम जल रहे थे
बुराई हँस रही थी
सच्चाई जल रही थी
सत्य का हानि
बुराई की विजय
विपरीत समय काल
स्वंय पर अविश्वास
अडिग रहें हर हाल
भले राम जले
भले रावण करें अट्टहास
हम रहें बस
स्वंय को संभाले
हम ना जले
राम की तरह
बचना होगा
रावण के हर प्रहार से
धर्म विजय मुश्किल है
अधर्म पताका झिलमिली है
संताप का कर्ज़ चुकायें
झिलमिली से बच बचायें
भले राम जले
भले रावण करें अट्टहास
हम रहें बस
स्वंय को संभाले ।
कान्ता राॅय
भोपाल

कैश बाॅक्स के नजारे/कविता

साफ़ नीला आसमान
सफेद रूई सा हल्का
बिलकुल हल्का ,
हल्का वाला सफेद बादल
कभी बहुत भारी सा हो जाता है
वक्त रेशम सी ,
रेशम सी मुलायम वक्त
फिसलती हुई ,सरकती हुई
रेशमी सा एहसास देती हुई गुजर जाती है
वक्त के वजूद में
जाने क्यों पहिए होते है
जो दिखाई नहीं देते पर ब्रेक नहीं होते है
शायद ब्रेक भी रहें हो कभी लेकिन
आजकल वक्त नहीं रूकता
यहाँ बाजार में बहुत भीड़ है
यह भीड़ कभी खत्म नहीं होती
यहाँ वक्त का कोई आस्तित्व नहीं है
रूई के फाये सी हल्की बादलों को
कोई नहीं देखना चाहता
वक्त नहीं है बाजार में किसी को आसमान देखने की
और चाहत नहीं है
उनको चाहत की क्या जरूरत
नीला आसमान तो
उनके दायरे में ही सिमटा हुआ जो होता है
वो सिर्फ कैश बाॅक्स की तरफ देखते है
नीला आसमान नहीं देखते
रूई के फाये सी हल्की बादलों को नहीं देखते
सिर्फ कैश बाक्स की तरफ देखते है
कैश बाॅक्स में उन्होंने
नीले आसमान को बंद करके रखा है
जब मर्ज़ी निकाल लेते है
जब मर्ज़ी देख लेते है ।
क्या जरूरत उन्हें बसंत की
क्या जरूरत उन्हें सावन और सुगंध की
ठहर कर क्यों देखे भला
वो तो सारे मौसमों को
अपने कैश बाॅक्स में बंद रखते है
जब फुरसत मिलती है काम से
जब मन करता है आराम से
कैश बाॅक्स में से सारे नजारे निकाल लेते है
और जी लेते है जब तब अपने मौसम को

क्या संवेदनाओं के खरीददार हो /कविता

कहने सुनने में तुम अक्सर
जाने क्या ढूंढा करते हो 
सरोकार क्या तुम्हें आंसुओ से
क्या आँसुओं के खरीददार हो ?
सोई जागी धुँधली आँखों में
सपनों की किरचन है बाकी
सरोकार क्या तुम्हें किरचनों से
क्या किरचनों के खरीददार हो ?
जलती सुलगती सी जिन्दगी
पर-उपकार विलुप्त सी रही
पर-उपकार क्या चर्चा वस्तु
क्या परोपकार के खरीददार हो ?
मान सम्मान के पैमाने
निराला जगत व्यवहार हुआ
सरोकार क्या तुम्हें व्यवहारों से
क्या व्यवहारों के खरीददार हो ?
आस लता-मंडप के छाँव की
संवेदनाओं की झुरमुट की
सरोकार क्या तुम्हें संवेदनाओं से
क्या संवेदनाओं के खरीददार हो ?
कान्ता रॉय
भोपाल

आईना ठुकराता नहीं/कविता

आइने की विशालता
आईने की शख्सियत 
आईना ठुकराता नहीं
सबको समा लेता है
जब चाहो आईने में
अपना वास देख लो
अपनी जगह दूजे का भी
जब चाहो निवास देख लो
वो किसी एक का नहीं
वो सबका होता है
जब जो मिल जाए
आईना सबको मान देता है
नहीं समेटता अपने अंदर
उनके जज़्बातों को
उनके हटते ही
किसी और को
समां लेता है अपने अंदर
मानो उसके जाने का
जैसे इंतज़ार था
लौट आने से भी
उसके एतराज़ नही
संवेदनाये नहीं
वो पत्थर है
वो भूलती नहीं
अपनी शख्सियत
वो भूलती नहीं
अपनी हैसियत
कान्ता रॉय (11.11.2015 /2;20 pm)

दीप-दीवाली ( गीत )

पिया संग दीप जलाऊँ हो रामा दीप दीवाली
रंग रंगोली द्वार सजाऊँ 
गेंदा गुलाब महकाऊँ हो रामा दीप दीवाली ....
पिया संग दीप जलाऊँ हो राम दीप दीवाली ......
लक्ष्मी ,शारदा पूजन बेला
संग गणपति विराजे हो रामा दीप दीवाली ....
पिया संग दीप जलाऊँ हो रामा दीप दीवाली .......
खील बताशे लड्डू ओ बर्फी
खीर में तुलसी हो रामा दीप दीवाली.......
पिया संग दीप जलाऊँ हो रामा दीप दीवाली ......

झिलमिल करे दीपक बाती
जगमग जगमग रौशन हो रामा दीप दीवाली .......
पिया संग दीप जलाऊँ हो रामा दीप दीवाली ......
सुख की कामना सुख की ज्योति
फुलझडी और अनार हो रामा दीप दीवाली.....
पिया संग दीप जलाऊँ हो रामा दीप दीवाली .......
कान्ता राॅय
भोपाल

मिटटी मैं नदी खेत की/कविता

मिटटी मैं नदी खेत की 
पड़ी दबी थी कीचड़ सी 
टोकरी में उठी उन हाथों से 
जल सिंचन हो पोषित हुई 
कोमल बनी ,मृदुल बनी 
दो हाथों ने आज 
क्या से क्या बनाया
झूमर बनी ,गुलदान बनी 
मटकी , सुराही औ दीप-दान बनी 
बाती संग जोड़ी बनकर 
अँधेरों में रौशन हुई 
महकती सी चमकती सी 
जगमग हुई रौशनी बनी 
मैं दीपक झिलमिल 
तेरी हाथों साकार हुई 
चाक तेरी चाकरी में 
कुम्हारी रहे सदा सलामत 
कुम्हारी रहे सदा सलामत !!!


कान्ता रॉय 
भोपाल

देखो कितने दीये जलाये हैं /कविता

घर के आंगन में मैने 
देखो कितने दीये जलाये हैं 
कुछ दीये आस्था के 
कुछ विश्वास के जलाये हैं 
घर के आंगन मे मैने 
सारे दीये जलाये हैं 
कुछ आशाओं के 
नाम जलाये 
कुछ आने वाली
 खुशियों के नाम 
कुछ मायुसी के भी नाम 
अजनबी से रिश्तों के 
कुछ टुटे डोर के नाम 
पराये हो चुके सपनो के भी   
कुछ दीप तेरे नाम की  भी जलाई  मैने 
कुछ उनके भी नाम के जलाये 
देखो मैने  सबके
नामों की  दीप जलाई  
घर के आंगन में 
 सारी दीप जलाई। 

कान्ता राॅय

देवी महालक्ष्मी /कविता




धनधान्य की अधिष्ठात्री 
तुम हो देवी महालक्ष्मी 
कमल पुष्प पर विराजित
गजगामिनी गजलक्ष्मी 
विध्न विनाशक श्री गणेश  
 सरस्वती तुम  मातेश्वरी 
कार्तिक मास पुण्य अमावस 
जन -जन मन हो जाये पावस 
कर ली तैयारी अराधना की 
 रात्रि पावन मनोकामना की 
रौशनी  दीपमालाओं की  
संतप्त अंधकार पर 
पर्व यह विजय प्रकाश की 
खील बताशे और फुलझडियाँ 
सज रही प्रकाश रंग तरंगनियाँ 
दीप ,रंगोली  हर द्वार सजे 
आतिशबाजी हर्षोल्लास रहें 
सुख समृद्धि सबके द्वार लगे 
दीपावली दीपों का हार लगे 

हैरी पोर्टर की दुनिया ( कविता )


हैरी पोर्टर की दुनिया में
वो रहता मसगूल
नोमिता और सिंगचेन बनकर
ही होना है मशहूर
वो कहता है माँ से
मुझे चाहिए माॅसमेलो
चावल दाल भूल कर
बन गया राईस केक का फैलो
खीर हलवा पूरी
अब हुई पुरानी बात
करना हो तो करो चाऊमिन पिज़्ज़ा
रोल वोल की बात
माँ बन गई माॅम
पापा का तो काम तमाम
ऐश और पिकाचू लेकर
याद रहा बस पोकीमोन
स्पाइडर मैन का जादू
ऐसा सर चढकर बोला
सुपर मैन और आयरन मैन
से एवेंजेर तक
सबका बन गया चेला
कहाँ गये विवेकानन्द ,
नेताजी सुभाष चंद्र से हीरो
बन गये इनके आदर्श
अब फिल्मिया हीरो
घट रहा है घुट रहा है
मासूमियत बचपन का
स्वभाव में रह गया बस
हरकत विडियो गेम सी
भटक रही है मरूभूमि में
मृगतृष्णा सा बचपन
सच की जमीन सरक गई
लड़कपन जिये उम्र पचपन
                  कान्ता राॅय
                     भोपाल

.चेहरा/लघुकथा


आधी रात को रोज की ही तरह आज भी नशे में धुत वो गली की तरफ मुड़ा । पोस्ट लाईट के मध्यम उजाले में सहमी सी लड़की पर जैसे ही नजर पड़ी , वह ठिठका ।
लड़की शायद उजाले की चाह में पोस्ट लाईट के खंभे से लगभग चिपकी हुई सी थी ।
करीब जाकर कुछ पूछने ही वाला था कि उसने अंगुली से अपने दाहिने तरफ इशारा किया । उसकी नजर वहां घूमी ।
चार लडके घूर रहे थे उसे । उनमें से एक को वो जानता था । लडका झेंप गया नजरें मिलते ही । अब चारों जा चुके थे ।
लड़की अब उससे भी सशंकित हो उठी थी, लेकिन उसकी अधेड़ावस्था के कारण विश्वास ....या अविश्वास ..... शायद !
" तुम इतनी रात को यहाँ कैसे और क्यों ?"
" मै अनाथाश्रम से भाग आई हूँ । वो लोग मुझे आज रात के लिए कही भेजने वाले थे । " दबी जुबान से वो बडी़ मुश्किल से कह पाई ।
"क्या..... ! अब कहाँ जाओगी ? "
" नहीं मालूम ! "
" मेरे घर चलोगी ? "
".........!"
" अब आखिरी बार पुछता हूँ , मेरे घर चलोगी हमेशा के लिए ? "
" जी " ....मोतियों सी लड़ी गालों पर ढुलक आई । गहन कुप्प अंधेरे से घबराई हुई थी ।
उसने झट लड़की का हाथ कसकर थामा और तेज कदमों से लगभग उसे घसीटते हुए घर की तरफ बढ़ चला । नशा हिरण हो चुका था ।
कुंडी खडकाने की भी जरूरत नहीं पडीं थी । उसके आने भर की आहट से दरवाजा खुल चुका था । वो भौंचक्की सी खड़ी रही ।
" ये लो , सम्भालो इसे ! बेटी लेकर आया हूँ हमारे लिए । अब हम बाँझ नहीं कहलायेंगे । "

कान्ता राॅय


प्यार/लघुकथा


पति को आॅफिस के लिये विदा करके ,सुबह की भाग - दौड़ निपटा पढने को अखबार उठाया , कि डोर बेल बज उठी ।
"इस वक्त कौन हो सकता है !" सोचते हुए दरवाजा खोला। उसे मानों साँप सूँघ गया । पल भर के लिये जैसे पूरी धरती ही हिल गई थी । सामने प्रतीक खड़ा था ।
"यहाँ कैसे ?" खुद को संयत करते हुए बस इतने ही शब्द उसके काँपते हुए होठों पर आकर ठहरे थे ।
"बनारस से हैदराबाद तुमको ढूँढते हुए बामुश्किल पहुँचा हूँ ।" वह बेतरतीब सा हो रहा था । सजीला सा प्रतीक जैसे कहीं खो गया था ।
"आओ अंदर, बैठो ,मै पानी लाती हूँ ।"
"नहीं , मुझे पानी नहीं चाहिए, मै तुम्हें लेने आया हूँ , चलो मेरे साथ । "
"मै कहाँ , मै अब नहीं चल सकती हूँ कहीं भी ।"
"क्यों, तुम तो मुझसे प्यार करती हो ना !"
"प्यार ! शायद दोस्ती के लिहाज़ से करती हूँ ।"
"तुम्हारी शादी जबरदस्ती हुई है ।हमें अलग किया गया है । तुम सिर्फ मुझे प्यार करती हो ।"
"नहीं, तुम गलत सोच रहे हो प्रतीक । मै उस वक्त भी तुमसे अधिक अपने मम्मी - पापा से प्यार करती थी ,इसलिए तो उनके प्यार के आगे तुम्हारे प्यार का वजूद कमजोर पड़ गया । "
"लेकिन जिस इंसान से तुम्हारी शादी हुई उससे प्यार ......"
"बस, अब आगे कुछ ना कहना , वो मेरे पति है और मै सबसे अधिक उन्हीं से प्यार करती हूँ ।उनसे मेरा जन्मों का नाता है । "
"और मै, मै कहाँ हूँ ? "
"तुम दोस्त हो ,तुम परिकथाओं के राजकुमार रहे हो मेरे लिए, जो महज कथाओं तक ही सिमटे रहते है हकीकत से कहीं कोसों दूर ।"
"अच्छा , तो मै अब चलता हूँ । तुमसे एकबार मिलना था सो मिल लिया । " बाहर आकर जेब में हाथ डाल टिकट फाड़ कर वहीं फेंक बिना पलटे वो निकल गया और वह जाते हुए उसे अपलक , उसके ओझल होने तक ,युँ ही ,वहीं ठिठकी निहारती रही ।


कान्ता राॅय
भोपाल

जिंदगी का मोह /लघुकथा


अनरवत यंत्रणा सहते हुए एक दिन उनके चंगुल से छूट कर भाग आई । कई महीने पहले अपहरण हुआ था उसका ... स्कूल से घर आते वक्त ...।
घर का दरवाजा नहीं खोला गया उसके लिये ।
पिंजरे में से मिठ्ठू ने चहचहा कर जरूर अपनी खुशी जाहिर की थी उसे देख कर ।
बहुत देर तक दरवाजे की कुंडियाँ खडकाती रही ...घंटों रो रोकर पुकारती रही । सन्नाटा पसरा हुआ था घर के अंदर .....मानो मातम मना रहे थे उसकी मौत का ।
वह दोषी नहीं थी इन परिस्थितियों के लिए ...!!
आखिर लौटना ही था उसे उसी काई और दुर्गंध में फिर से , जहाँ से भाग कर आई थी अपनो के पास ।
लौटते वक्त खिड़की ने चरमरा कर अपनी चुप्पी तोडी थी । खिड़की की ओट में माँ की सिसकियां भी सुनी थी ठहर कर उसने ।
सिसकियां लेते हुए एक हिचकी उसके गले में भी अटकी थी । उस दिन से वो अटकी हुई हिचकी आज तक गले में फाँस बनकर चुभती रहती है ।
कितना पाषाण हृदय है इस समाज का ...उस दिन महसूस हो गया था । वो परित्यक्ता आज भी हर बार उम्मीद लेकर निहारती है अपने उस स्वप्न नगरी को ...जहाँ उसके अपने अब उसके बिना ही जिंदगी जीते है । विचित्र सी मनःस्थिति ... त्याग दी गई समाज से ... परिवार से वह ... फिर भी मोह है कि छूटता ही नहीं ।
कान्ता राॅय भोपाल

घर की बात /लघुकथा



" मै इसे जान से मार दूंगा , इस बच्चे को ये ना जनेगी ! " रणधीर सिंह नें उसका गला दोनों हाथों से दबाते हुए कहा । उसकी आँखें बाहर ही निकल आती अगर जेठानी ने तुरंत ना छुड़ाया होता ।
आधी रात घर में कोहराम मचा हुआ था । गर्भवती रमा जो हाथ भर लम्बा घूँघट काढ़े घुमती रहती थी , वो आज सिर उघारे चंडी रूप धरे बेहाल थी ।
" शादी करके लाया तो मेरी जिम्मेदारी क्यों नहीं उठाई ? क्यों मेरे छाती पर सौत बिठाई , वो गलत नहीं था ?" रमा के क्रोध की चिन्गारी दहक कर , शोलों की लपक सी हो, घर भर को जलाने को आतुर थी ।
" मै चाहे जो करूं , मै मर्द हूँ , तु पूछने वाली कौन होती है ?"
" मैने बाहर जाकर जात - धर्म नहीं बिगाड़ लाई हूँ ,ये तेरे घर का ही वारिस है ,पूछ तेरे चाचा से । "
रणधीर सिंह को जैसे साँप सूँघ गया । चाचा की ओर देख घृणा से जोर से थूक बाहर दरवाजे से निकल गया ।
" घर की बात घर में ही रहने दो । मिट्टी डालो बात पर , सब ठीक है । बच्चा तो घर का ही है ना ! अब रात गई बात गई "- आँगन में खटिया पर लेटे - लेटे मौन होकर देर तक सब तमाशा देख, दादा नें खाँसते हुए आखिरी में अपना फरमान सुना दिये ।
कान्ता राॅय
भोपाल

विलुप्तता/लघुकथा


" जोगनिया नदी वाले रास्ते से ही चलना । मुझे नदी देखते हुए जाना है । " रिक्शे पर बैठते ही कौतूहल जगा था ।
" अरे ,जोगनिया नदी ! कितनी साल बाद आई हो बीबी जी ? ऊ तो , कब का मिट गई । "
" क्या ? नदी कैसे मिट सकती है भला ? " वो तड़प उठी  ।
गाँव की कितनी यादें थी जोगनिया नदी से जुड़ी हुई । बचपन , स्कूल , कुसुमा और गणेशिया । नदी के हिलोर में खेलेने पहुँच जाते जब भी मौका मिलता और पानी के रेले में कागज की कश्ती चलाना । आखिरी बार खेलने तब गई थी जब गणेशिया को जोंक ने धर लिया था । मार भी बहुत पड़ी थी । फिर तो माई ही स्कूल लेने और छोडने जाने लगी थी ।
रिक्शा अचानक चरमरा कर रूक गया ।
तन्द्रा टूटी ।
" हाँ ,बहुत साल बाद अबकी लौटी हूँ । कैसी सूखी ये नदी ,कुछ बताओगे ? "
" अरे , का बताये , भराव होते - होते उथली तो पहले ही हो चुकी थी और फैक्ट्री वालों को भी वहीं बसना था । वो देखो , आपकी जोगनिया नदी पर से उठता धुँआ ।"
चिमनी से उठता गहरा काला धुआँ उसकी छाती में आकर जैसे बैठ गया ।
" गाँव तो बचा हैै ना ? " घुट कर बस इतना ही पूछ पाई ।

कान्ता राॅय
भोपाल

फासले (लघुकथा )


गुलाबी साड़ी पहनी थी उसने , लेकिन होठों पर आज अपनी पसंदीदा गुलाबी लिपिस्टिक नहीं लगाई थी । जुड़े को कस कर बाँध लिया था , बिलकुल अपने जज्बातों की ही तरह ।
उससे मिलने गई थी । उसे अच्छी ना लगे ,सुंदर ना लगे वो , चाहती तो यही थी । लेकिन ना जाने क्यों , जरा सी ना चाहते हुए भी उसके निगाहों में , वो बेहद खूूबसूरत लगना चाहती थी ।
रूखे से हाथ लिये , नाखून नहीं रंगे थे , और तन को भी उस दिन नहीं महकाया था उस खूशबू से जिसमें वो अक्सर तर - बतर रहती थी ।
दूर ही दूर से , उसे देख कर लौट आने की उसकी सोच, धरी की धरी रह गई , जब नजर सामने खड़े उन पर पड़ी । कदम खुद ब खुद उनकी ओर बढ़ चले । मन्त्रमुग्ध सी देखती रही और वो भी टकटकी लगाए उसकी ओर प्यार से ,अभिमान से , आतुर हो मंद - मंद मुस्काते हुए देखते रहे ।
कैसा वो क्षण था , कैसे सारे प्रयास धराशायी हुए उससे दूर जाने की ।
होशो हवास खोकर उसके बाँहों में सिमट जाने को आतुर हुई कि दोनों के दरमियान फासले याद आ गये । दोनों एक - दूसरे को गहरी नजरों से देख , उल्टे कदमों से अपने -अपने घर को लौट चले ।

कान्ता राॅय
भोपाल

" वेल मेंटेन्ड अर्थ "/लघुकथा


चलते - चलते साँस थमने लगी और वह हाँफने लगा ।चारों तरफ सीमेंट कंक्रीट के जंगल में पशु-पक्षी रहित सिर्फ मानव एकमात्र प्रजाति ही नजर आ रही थे । वह हैरान था। वह घुट रहा था ।
तरक्की का चमकदार आसमान बिलकुल गर्म ताँबाई आभा लिये और रास्ते रजतवर्ण से चमक रहे थे । समस्त धरती कीचड़ और तालाबों से रहित सुव्यवस्थित थी । " वेल मेनटेन्ड अर्थ " यानि " पाॅलिश्ड दुनिया " ! 
शायद इसी का ख्वाब देखा गया हो कभी जो आज साकार है । वह अपनी टूटती हुई साँसों की डोरी थामे , आॅक्सीजन की तलाश में , माॅल दर माॅल भटक रहा था ।
" वेल मेन्टेन्ड अर्थ " का प्राणी , लेकिन पाॅल्यूशन फ्री ब्राँडेड आॅक्सीजन खरीदने के लिये " प्लास्टिक मनी " जरा कम पड़ गई । साँसों के लिए लोकल आॅक्सीजन के एक साधारण .सिलिंडर की तलाश में बेहाल था ।
जान मुश्किल में थी । पूर्व में पढी़ " पेट की आग " की कहानी याद आ गई उसे । सुना हैं कि "भूख " का विकल्प कभी पानी हुआ करता था गरीबों के लिए ।
गरीब के पेट की भूख अब साँस की भूख तक पहुँच गई । सीने में " मरोड़ " सी उठी । वह तड़प कर जमीन पर औंधे गिर पड़ा ।
लुँज - पुँज से अपने हाथ में , पिछली शताब्दी के कुछ आखिरी बचे पेड़ों की तस्वीर लिए , कातर नजरों से उनको देख जा रहा था , मानो उन पेड़ों से गुहार लगा रहा हो , लेकिन तस्वीर क्या कभी प्राणवायु देती है ? उसके छाती की अकड़न प्रयाण - बेला को निश्चित कर गई ।
सहसा वह पसीने - पसीने हो उठा। उसकी नींद खुल चुकी थी । भय से पीला जर्द चेहरा लिए , जिंदा वह , स्वंय की देह को छूकर आश्वस्त हुआ । बिस्तर से उठ बाहर की ओर देखा । " वेल मेन्टेंड अर्थ " होने से दुनिया अभी बची थी । नीम ,पीपल और जामुन के पत्ते मस्त हवाओं संग झूम रहे थे । अभी -अभी देखे ख़्वाब से वह अंदर तक डरा हुआ था।
फावड़ा ,गैती ले घर से निकल , सड़कों पर यहां - वहां अब वह बिना रुके जहाँ - तहाँ , गड्ढे ही गड्ढे खोदता रहा । कनेर , गुडहल और जाने कितने पेड़ों की शाखाओं का ढेर लगा कर जल्दी - जल्दी रोपे जा रहा था ।
" ये क्या जंगल ,कचरा लगा रखा है यहाँ ! पागल हो क्या ? "
" पागल ? हाँ ,मै पागल ! पूरी धरती पर फिर से जंगल का ख्वाब देखने वाला पागल । हा हा हा हा ......"

कान्ता राॅय
भोपाल

जोगी का जोग/लघुकथा


" कल ठेकेदारिनी भी कह रही थी अपने बेटे के लिए । कह रही थी कि रामायण बाँचती है , रसोई सम्भालती है और सुंदर भी है । ऐसी गुणी सुशील बहू भाग वालों को मिले । ठेकेदार साहब का भी मन है तेरे पर । "
" मेरा मन नहीं है शादी का । देखो अम्मू अब मंदिर आ गया ,वो रहे पुजारी जी ! "
" लो पुजारी जी ,सम्भालो इसे और जरा समझा- बुझाय के हमारे ऊपर एहसान करो आप । लडकी शादी के नाम पर नोंच खाने को दौडती है "
" इसे छोड़ जाओ , शाम की आरती के बाद ये घर पहुँच जायेगी । आप जाओ , मै समझा दूंगा ।" पुजारी को माथा टेक अम्मू निकल गई ।
" घर- परिवार त्याग बाबा कैसे रहते है आश्रम में ? यहाँ कोई औरत नहीं रहती ? "
आरती के बाद बाबा के पास श्रद्धा से बैठ वह पूछ बैठी ।
बाबा जोगी थे और वो भी जोग लेने की अभिलाषी । बहुत कुछ जानना था उसे जोग के बारे में ।
" आश्रम के लिए स्त्रियाँ ठीक नहीं । "
" क्यों भला ?"
" तपस्या भंग होने का डर रहता है इनका । "
" मतलब ? "
" भूख को मारते - मारते कभी भोजन पर कैसे आदमी टूट पडता है और व्रत टूट जाता है ! " कहते हुए बाबा के चेहरे पर आते - जाते कई रंग देख वह अंदर तक काँप उठी ।
" बाबा , अम्मू राह तक रही होगी , मै कल फिर आऊँगी । " झटके से उठ वहाँ से राह पकड़ तेज कदमों से एक ही साँस में घर पहुँच अम्मू से लिपट गई ।
" अम्मू , ठेकेदार का लडका मुझे पसंद है , तु शादी की बात चला दे । "


कान्ता राॅय
भोपाल

अमीरों की बैसाखी (लघुकथा)


" तुम्हारे नम्बर तो मुझसे कम आये थे ना ! फिर ये एडमिशन .... ? "
" रहने दो अब ये सब पूछना - पूछाना ,लो पहले मिठाई खाओ , आखिर तुम्हारा जिगरी दोस्त तो डाक्टर बन रहा है ना ! "
" मतलब ? "
" अरे नहीं समझे अब तक क्या ! वही पुरानी शिक्षा नीति की घटिया चालबाज़ी , डोनेशन ! और क्या ! "
" लेकिन तुम तो कहते थे डोनेशन देकर नहीं पढोगे । अपने कोशिशों की नैया पर सवार रहोगे ! सो , उसका क्या ? "
" कोशिशों की नैया ! हा हा हा हा ....वो सब स्कूली बातें थी । "
" स्कूली बातें ! हाँ , सही कह रहे हो यार , गरीबों के शरीर पर कोढ़ बन चिपका ये डोनेशन ! अमीरों की बैसाखी ही है उनको विद्वान और प्रतिष्ठित बनाने की । "

क्यों वो अकेली / लघुकथा


नाट्यशाला की गहमागहमी से ही समझ में आ रहा था कि आज मंजे हुए कलाकारों की खास प्रस्तुति होनी है ।
सुहासिनी जी की मुख्य भूमिका में आज उनकी टीम का ऐतिहासिक रंगमंच प्रस्तुतीकरण था ।
नियत समय पर पर्दा उठते ही सुहासिनी जी स्टेज पर बडी़ कुशलता से नृत्य की शुरुआत करी । अपने सहभागियों की प्रस्तुति के लिए नदारद देख , वो चिंतित थी ।
सामने विशाल दर्शक दीर्धा और वह अकेली । स्तब्ध सी अब नाटिका की कर्णधार बन मगन वो , एक साँस में ही समस्त पात्रों को अपने नृत्य में उतार देर तक नाचती रही। तालियों से नाट्यशाला गुँजा उठा ।
मिडिया कर्मियों द्वारा बखानी जाने पर मालूम हुआ कि उसके द्वारा एकल नृत्य नाटिका में नृत्य का कोई नया मिशाल आज कायम हुआ है ।
लेकिन सुहासिनी जी की निगाहें भीड़ में दूर तलक अपनों के चेहरों को तलाश रही थी ।
कान्ता राॅय
भोपाल

राम का नाम/लघुकथा


" सुना है बापू जी का पुनर्जन्म होने वाला है इस साल ।"
" क्या कह रहे हो ?"
" अरे हाँ , दुनिया के ज्योत्षियों ने ही गणना करके ये सामाचार जारी किये है "
" भाई फिर तो अपनी निकल पडी समझो ! "
" वो कैसे भला ? "
" वो तो राम राम ही भजते है , और हमारी राजनीति तो राम के नाम पर ही चलती है । "

कान्ता राॅय
भोपाल

सिटी आॅफ जाॅय/लघुकथा


हाथ में धुंघरू बजाते हुए बाढ़ की पानी में भी रिक्शे पर सवारी को ढोता हुआ बैचेन सा दौडता चला जा था गंतव्य की ओर , लेकिन आने वाले दिनों के लिए पेट की चिंता व्याकुल किये जा रही थी ।
कल बाग बाजार की सवारी लेकर जाते हुए उनकी बातों से मालूम हुआ कि रिक्शेवालों की वजह से शहर नोंगरा ( गंदा ) हो रहा है । मेयर शहर से रिक्शा हटाने पर विचार कर रहे है ।
भूख की हाँडी को यहाँ की माटी ने भात देने से शायद अब इंकार कर दिया ।
" आह रे , सिटी आॅफ जाॅय ! जाॅय , की बोरो लोक के ई दिबी ? " ( जाॅय क्या बडे लोगों को ही दोगी ? )
" क्या हुआ दादा ? कहाँ खोये हुए हो रिक्शे को खींचते हुए ? "
" की बोलेगा रे साहिब , सुने हैं , कोलकाता अब रिक्शे वालों को प्रश्रय नहीं देगी ?"
" एटा की पागलामी रे बाबा ! क्या सब सोच रहे है ? ये रिक्शा और ट्राम तो संस्कृति है कोलकाता का , ये कभी नहीं जायेगा , बुझले की ! "

कान्ता राॅय
भोपाल

जोड़ का तोड़ (लघुकथा )


पूरे पच्चीस हजार ! ठीक से गिनकर रूपये पर्स में रखे उसने ।
किटी पार्टी खत्म होते ही उमंग भरी तेज कदमों से पर्स को हाथों में भींच घर की तरफ निकल पड़ी ।
पच्चीस महीने में एक बार ये अवसर आता है । हर महीने घर- खर्च से बचा बचा कर ही यहाँ पैसे भरती रही है ।
" माँ ,आ गई तुम , क्या इस बार भी नहीं खुली तुम्हारी किटी ? "
" खुल गई , देख ! "
" अब तो मेरा कम्प्यूटर आ जायेगा ना ? "
" हाँ , अब उतावली ना हो ,आ जायेगा । "
" देखना माँ ,अबकी बार कम्प्यूटर साइंस में भी सबसे अधिक नम्बर होंगे मेरे ! " वसुधा के आँखों में नई उम्मीदों के सपने पलते देख मन विभोर हो उठा । ममता से भरी हुई वह वसुधा के समीप जा उसका माथा चुम लिया ।
" क्या हुआ किटी खुल गई तुम्हारी ? "
" जी ! "
" लाओ , मुझे दो , कुछ और शेयर खरीदने के काम आयेंगे । "
" लेकिन , ये पैसे तो वसुधा के कम्प्यूटर के लिए जोड़े है बडी़ मुश्किल से किटी के बहाने । "
" वसुधा के लिये कम्प्यूटर ! उसको तो पराये घर जाना है , उसके लिए ये फालतू के खर्च .... ! "
कान्ता राॅय
भोपाल

अवलम्ब (लघुकथा)


" अभी जो बाहर निकल कर गई वो अनुराधा ही थी ना ? " उसको बडा अटपटा सा लगा उसे यहाँ देख कर तो अंदर आते ही एकदम से पूछ बैठी ।
" हूँ "
" हूँ , मतलब क्या दिव्या ! वह तेरे पति की गर्ल फ्रेंड है और तुमने उसे अपने घर आने दिया ! "
" अच्छा है ना , पति की गर्ल फ्रेंड अब मेरी भी गर्ल फ्रेंड ! पति अब उससे छुपकर नहीं मिलता है और यहाँ मेरा भी .....। "
" मै समझी नहीं , मतलब , मेरा भी क्या ? "
" पति उसके संग मुझे भी ..... , समझती क्यों नहीं , बिना अवलम्बन के उनके बिना तलाक लेकर कहाँ - कहाँ भटकती इस व्यस्क उम्र में , तो यहीं सही । "

कान्ता राॅय
भोपाल

पथ का चुनाव/लघुकथा


आज फिर किसी विधुर का प्रस्ताव आया है । मन सिहर उठा जवान बच्चों की माँ बनने के ख्याल से ही ।
इस रिश्ते को भी ना कह कर अपने धनहीन दुर्बल पिता को संताप दूँ , या बन जाऊँ हमउम्र बच्चों की माँ । सुना है तहसीलदार है । शायद पिता की वे मदद भी करें उनकी दुसरी बेटियों के निर्वाह में ।
आज काॅलेज में भी मन नहीं लगा था । घर की तरफ जाते हुए पैरों में कम्पन महसूस की थी उसने ।
घंटे की टनकार, मंदिर से उठता हवन का धुँआ , कदम वहीं को मुड़ गये ।
ऊपर २५० सीढ़ियाँ , ऐसे चढ़ गई जैसे सारी साँसें आज इन्हीं को सुपुर्द करनी है ।
पहाड़ पर ऊपर मंदिर के , चारों ओर खाई । बिलकुल किनारे मुंडेर पर जाकर खड़ी हो गई । क्या करें , नीचे खाई में कूद जाये , या वापस घर जाकर तहसीलदार के बच्चों की माँ बने , या अपनी बी. ए. की पढ़ाई पूरी कर कोई ट्यूशन , या नौकरी ।
हथेलियों में पसीना भर आया और आँखों में आँसू । उसने महसूस किया कि वह किसी भी हाल में जिंदा रहना चाहती है । वह मरना नहीं चाहती । मंदिर की घंटी अब शांत हो चुकी थी ।
चढ़ाई से दुगुना जोश उसका अब सीढ़ियों से उतरने में था । साँसें काबू में थी ।
" पापा , मै तब तक शादी नहीं करूँगी जब तक कोई नौकरी ना मिले मुझे । " आस्तित्व के प्रति धर्माचरण का पालन करते हुए ,अब दृढ़ता से अपने पथ का चुनाव कर चुकी थी ।


कान्ता राॅय
भोपाल

कुछ बातें सभी परिंदों के लिये कि ...लघुकथा कैसी हो ... उसका प्रभाव कैसा हो ।


कुछ बातें सभी परिंदों के लिये कि ...लघुकथा कैसी हो ... उसका प्रभाव कैसा हो । 

लघुकथा नाम के अनुरूप ही लघु रूप में होना चाहिए । 

बिंबात्मक लघुकथाएं परिस्थितियों से हमारा साक्षात करवाती है और फिर चलते - चलते अचानक ऐसे खत्म हो जाती है ,जैसे अपनी पीड़ा व्यक्त करते करते कोई व्यक्ति अचानक खामोश हो जाये 

और फिर आपको उसकी उस आधी -अधुरी व्यथा - कथा से ही उसका पूरा हाल - चाल खुद जानना पड़े और खुद ही तय करना पड़े कि उसके लिये क्या करना है , करना भी है या नहीं ? 

कुछ करने की स्थिति बची भी है या नहीं ? कुछ करने की स्थिति बची भी है या अब कुछ नहीं हो सकता है । श्रेष्ठ रचना वहीं है जो खत्म होकर भी पाठक के मन में खत्म ना हो , बल्कि वहां से वह अपनी एक नई चिंतन यात्रा शुरू करें । 

लेखक का सृजन पाठक के मन में भी कुछ सृजित करें । 

लघुकथा का उद्देश्य परंपरागत , निरर्थक और खोखले जीवन मूल्यों पर प्रहार करके नवीन एवं सार्थक जीवन मूल्यों के लिए भूमि तैयार करना होता है । 

लघुकथा प्रायः समस्या की ओर संकेत देकर ही मौन हो जाती है और अप्रत्यक्ष रूप में समाधान के लिये प्रेरित करती है । उसमें स्थितियों का निदान लेखक द्वारा कम और पाठक द्वारा खोजा गया अधिक होता है ।

लघुकथा में न कथा कम , न भाषा का बोझ , न भावों की बहुत ऊँची उड़ान , बस उतनी ही जितनी कि लघुकथा को चाहिए । विशिष्टता दिखाई देना चाहिए इसमें । 

लघुकथा लीक से हटकर सभी परंपराओं तोड़ते हुए भी और कभी किसी लीक पर चलते हुए भी होनी चाहिए ।

लघुकथा से उपजी करूणा और कटाक्ष - प्रहार के मिक्स की सुक्ष्म फुहारों से पाठकों का मन कुछ इस तरह से भीगता है कि एक साथ हँसने और रोने का मन करता है ... इसी को कहते है दोहरी मार । 

लघुकथा का मकसद ही है समाजिक विडंबनाओं पर दोहरी मार करने का ।श्रेष्ठ लघुकथा का पैमाना यही है कि वह कागज पर खत्म होने के बाद पाठक के मस्तिष्क में शुरू हो और उसे सोचने के लिये विवश करे । धीरे - धीरे उसे बदले , उसके कलुष को धोये , इतने धीरे कि पाठक को पता भी ना चले और उसका मन दर्पण स्वच्छ हो जाये , एकदम निर्मल ।

कान्ता राय भोपाल

लघुकथा लेखन ---- लघुकथा लेखन के संदर्भ में कुछ ऐसी बातें जो लिखते समय मै स्वंय अनुभव करती हूँ ।

लघुकथा लेखन के संदर्भ में कुछ ऐसी बातें जो लिखते समय मै स्वंय अनुभव करती हूँ ।लघुकथा लेखन के लिए सही कथानक का चुनाव बेहद जरूरी है । सही कथानक ही सार्थक लघुकथा के निर्माण की नींव होती है । गलत कथानक वक्त की बरबादी और निम्न स्तरिय कथा का कारण बनता है ।लघुकथा में सबसे जरूरी चीज़ होती है उसमें संदेश का होना । संदेश विहीन लघुकथा मान्य नहीं है । इसलिये लेखन करने से पहले जरा ठहरें और सोचें , कि हमें क्या लिखना है और क्यों लिखना है । इस कथा के माध्यम से हम क्या कहना चाहते है , और जो हम कह रहे है वो समाज के लिए हितकारी है या नहीं ।
इसके बाद जो जरूरी चीज़ है वो " कैसे कहना है " यानि की आपकी कथा का शिल्प कैसा हो । उसका प्रारूप कैसा हो । कथा विवरणात्मक शैली में हो या संवाद शैली में या दोनों का मिश्रण हो अर्थात मिश्रित शैली । वैसे मिश्रित शैली में बेहतरीन कथ्य उभरकर आता है ऐसा मेरा मानना है लेकिन ये कथानक से ही तय हो जाता है कि ये कथा कैसी लिखी जायेगी ।
कथा में पंच का प्रभाव कैसे आये ? ये प्रश्न अक्सर नवलेखकों को अंदर से बेचैन करता है । कई प्रश्न आये है इस से संबंधित कि पूरी कथा लिखने के बाद पंच पर ही अटक जाते है । अब मै यहाँ आप सभी को बेहतर पंच के लिए कुछ बातें बताऊँगी जो मेरे स्वंय के लेखन करते हुए मैनें अनुभव किया है । आप सबके लिये ये कितना लाभकारी साबित होगा, यह तो आपका आगामी लेखन ही तय करेगा । कह नहीं सकती कि मै कितना समझा पाने में सफल होऊँगी क्योंकि सीखने का मेरा क्रम भी अबतक जारी है ।
कथा की शुरूआत ऐसी हो कि पहली पंक्ति से ही पाठक के मन में एक जिज्ञासा उत्पन्न हो और धीरे - धीरे कथा अपने मध्यम भाग में स्पष्ट होते हुए यानि अपने सम्पूर्ण आकार में आगे बढें । अंतिम पंक्ति की प्रस्तुति चौंकाने वाली या सर जी ( पूज्यनीय योगराज प्रभाकर जी ) के अनुसार ततैये के डंक मारने जैसा प्रतीत हो । पढने के बाद देर तक उसी को सोचते रहें । यही होता है पंच का प्रभाव ।पंचदार कथा बनाने के लिए आपको कथा की पहली पंक्ति से ही सतर्क रहने की जरूरत होगी , तो ही सटीक पंच संभव होगा ।कई बार पंच के लिए विशेष तौर पर सोचना नहीं पडता है । कथा क्लाईमैक्स तक पहुँच कर स्वंय ही प्राकृतिक रूप से पंच कायम कर लेती है ।कथा की सही शुरूआत ही पंच का आधार होता है । आपका आखिरी पंक्ति का जिक्र पहले पंक्ति में नहीं होना चाहिए अर्थात आपके पंच का भेद नहीं खुलना चाहिए या बीच में भी उसका जिक्र नहीं होना चाहिए ।आपका कथ्य यानि संदेश आपके आखिरी पंक्ति पंच में ही ऊभर कर आना है । यह कथा लिखने से पहले की गई विभिन्न आयामों से चिंतन- मनन का ही परिणाम होगा ।
सर जी ( पूज्यनीय योगराज प्रभाकर जी ), अक्सर कहते है कि पहले कथा पर या जो कुछ लिखने जा रहे है उस पर मनन किजिए । १ से २ दिन तक चिंतन करें , पकने दें कथा को मन में पूरी तरह , यानि प्लाॅट तो दिमाग में आया है , लेकिन उसे किस तरह स्थापित करे कथा में , ये ही विशिष्ट लेखन का निष्कर्ष है ।प्लाॅट मिल गया और लिख लिये ,उसके बाद आप दस से पन्द्रह बार पढिये उसे , और देखिए बारम्बार कि क्या ये वही बात है जिसे आप बनाना चाहते है ?
अगर बार - बार किये गये प्रयासों के बाद भी कथा सही नहीं बनी प्रतीत हो तो उसे रद्दी में डाल दीजिये ,क्योंकि शायद इस प्लाॅट का चुनाव ही गलत हो गया होगा , क्योंकि सही और सार्थक निर्माण के लिये जमीन यानि प्लाॅट का सही होना बेहद जरूरी है ।सही प्लाॅट स्वंय ही सार्थक निर्माण का आकार ग्रहण करने लगता है अक्सर ।सादर अभिनंदन आप सभी को ।

कान्ता राॅय 
भोपाल

अंतःस्मरण (लघुकथा)


कैंसर का आखिरी चरण , अर्ध बेहोशी की हालत में , जिन्दगी की आखिरी साँस गिन रही थी वो । आॅक्सीजन मास्क भी अब निष्क्रिय सा प्रतीत हो रहा था ।
डूबते हुए लम्हों में कभी आँखें खोलती तो पल भर में बंद कर लेती । आई. सी. यू. वार्ड के बाहर बेटा -बहू , दामाद ,नाती -पोते सब आखिरी विदाई के वक्त साथ रहने की लालसा लिये उपस्थित थे ।
पति नम आँखों से माथे को सहलाते हुए उसे मरणासन्ना देख साथ - साथ बिताये धुप -छाँह जैसे समस्त पल , जिम्मेदारियों का सलीके से निर्वाह करने का भी स्मरण कर रहे थे ।
जाने क्या उस अर्ध बेहोशी में बड़बड़ाये जा रही थी । पति माथे पर हाथ रख उसको सम्बल दे रहें थे कि वो जोर से कराह उठी " सुशील , मै आपके बाँहों में मरना चाहती हूँ । "
" मम्मी ने अभी किसको याद किया है , ये सुशील कौन है ? " पास खड़ी बेटी के सवाल पर वे चौंक उठे ।
" सुशील जी , तुम्हारी मम्मी के कालेज के दोस्त है । "

कान्ता राॅय
भोपाल

कुम्हारी (लघुकथा)


बाजार में बहुत भीड़ थी आज । क्यों ना हो ,नवरात्रि का पहला दिन , लोग सुबह से ही स्नान ध्यान कर पूजा- पाठ की तैयारी में लगे हुए थे ।
मै भी स्नान कर ,कोरी साड़ी पहन नंगे पैर माता रानी को लिवाने आई थी । फुटपाथ के उसी निश्चित कोने में , माता रानी विविध रूपों में मुर्ति रूप लिये दुकानों में सज रही थी । कहीं तीन मुंह वाली शेर पर सवार थी , कहीं अपने अष्टभुजा में सम्पूर्ण शस्त्रों के साथ , तो कहीं दस भुजा लेकर महिषासुर का वध करती हुई । काली ,चामुण्डा सबके दर्शन हुए लेकिन मै लेकर आई हमेशा की तरह अष्टभुजी माँ दुर्गा सिद्धीधात्री को ।
वहीं मिट्टी के दिये लेते हुए किनारे रोड पर जाकर नजर जैसे अटक गई । एक युवक रोड पर किनारे बेहोश सा पडा हुआ था ।
" क्या देख रही है वहाँ , वो बेवडा है ,पीकर टुन्न है ।"
" क्या , बेवडा ? "
मुझे टकटकी लगा कर चकित हो उसे देखना कुम्हार को पसंद नहीं आया हो जैसे । वो मुंह बना रहा था , शायद वह उसको प्रतिदिन देखने का आदी रहा हो , लेकिन इतने करीब से उसे देखना मेरा ,वो भी सुबह के ऊजाले में ,मेरे लिए यह दृश्य स्तब्ध करने वाला था कि कमाने खाने और खिलाने के उम्र में यह ऐसे सड़क के किनारे बेवडा बनकर .....!
चौराहे पर रंगीन ब्लबों की लडियाँ और माता के नाम के पताके सजाये जा रहे थे । एक तरफ जिंदगी विविध रंगों से सरोबार होकर त्योहार मनाने को आकूल थी तो दूसरी तरफ ये यहाँ ,इस तरह जिंदगी से दूर ।
घर आते वक्त उस " बेवडे " युवक का चेहरा बार - बार आँखों के सामने कौंध रहा था ।
एकदम गोरा सा गोल सुंदर चेहरा , घनी सी भौंहे । सोच रही थी कि जिस दिन ये पैदा हुआ होगा , कितनी खुशियों का जनम हुआ होगा इसके साथ ही ।इतने गोरे से मुख वाले बच्चे को किस - किस उपमे से नवाजा गया होगा । किसी ने राम तो किसी नें नारायण के जन्म का होना भी कहा होगा । माता - पिता ने कितनी बधाइयां कबूल की होंगी इसके पैदा होने पर ।
प्रत्येक बच्चे का जन्म इस पृथ्वी पर कोमल माटी सा एक समान ही होता है , फिर जिसका जैसा नसीब , वैसा कुम्हार मिलता है । कच्चे हाथों में जाकर इस कोमल मिट्टी (बच्चे) के अंदर पर्याप्त गुण होने के बाद भी , मानों तो जैसे बहुत बडा नुकसान हो गया । अनपढ़ , अप्रशिक्षित कुम्हार ने मिट्टी के जीवन को व्यर्थ कर गया । ईश्वर भी इन अपरिपक्व सृजकों पर अवश्य क्षोभ प्रकट कर रहें होंगे ।
कौन दोषी था उस युवक को बेवडा बनाने में ?
मेरे मन के प्रश्न मन में ही लटकते रह गये और गाड़ी कब घर पहुँच गई मालूम ही नहीं पड़ा ।
"जय दुर्गा माई " के जयकारे के साथ माता रानी को सिर पर रख स्थापित जगह पर वास देकर घट स्थापना की तैयारी में लग गई । चिंतन अबतक जारी था ।
कान्ता राॅय
भोपाल

नाम गुम जायेगा (लघुकथा)


नामचीन होने के बाद भी उम्र भर अकेलेपन का दर्द सहने वाली ये चार कंधों पर सवार ,
काश , एकबार अर्थी से उठकर अपने पीछे आते हुए आँसुओं से सराबोर इस हुजूम को देख पाती !

कान्ता राॅय
भोपाल

बैकग्राउंड /लघुकथा


" ये कहाँ लेकर आये हो मुझे । "
" अपने गाँव ,और कहाँ ! "
" क्या , ये है तुम्हारा गाँव ? "
" हाँ , यही तो है हमारा गाँव ,
ये देखो हमारी बकरी और वो रहा मेरा भतीजा ।"
" ओह नो , तुम इस बस्ती से बिलाँग करते हो ? "
" हाँ ,तो ? "
" सुनो , मुझे अभी वापिस लौटना  है । "
" ऐसे कैसे ,वापस जाओगी ? तुम इस घर की बहू हो । बस माँ अभी खेत से आती ही होगी । "
" मै वापस जा रही हूँ । साॅरी , मुझसे भूल हो गई । तुम डाॅक्टर थे इसलिए ...."
" तो .... ? इसलिए क्या ? "
" इसलिए तुम्हारा बैकग्राउंड नहीं देखा मैने । "


कान्ता राॅय
भोपाल

खास रिश्ते का स्वप्न/लघुकथा


" ये क्या सुना मैने , तुम शादी तोड़ रही हो ? "
" सही सुना तुमने । मैने सोचा था कि ये शादी मुझे खुशी देगी । "
" हाँ ,देनी ही चाहिए थी ,तुमने घरवालों के मर्ज़ी के खिलाफ़ , अपने पसंद से जो की थी ! "
" उन दिनों हम एक दुसरे के लिए खास थे , लेकिन आज ....! "
" उन दिनों से ... ! , क्या मतलब है तुम्हारा , और आज क्या है ? "
"उनका सॉफ्स्टिकेटिड न होना , अर्थिनेस और सेंस ऑफ़ ह्यूमर भी बहुत खलता है। आज हम दोनों एक दुसरे के लिये बेहद आम है । "
" ऐसा क्यों ? " उस व्याह की उमंग और उत्तेजना की इस परिणति से वह चकित थी ।
"क्योंकि , दो घंटे रोज वाली पार्क की दोस्ती , पति के रिश्ते में हर दिन औंधे- मुँह गिरता है । "

कान्ता राॅय
भोपाल

धर्म का निर्वाह /लघुकथा


सालों गुजर गये थे , मोहित विदेश से वापस नहीं लौटे ।
रोज फोन का आना , धीरे - धीरे हफ्तों का अंतराल लेते हुए , महीनों में बदल गया ।
पतिव्रता अपने धर्म का निर्वाह कर ही रही थी कि आज आॅफिस में काम के दौरान अशोक दोस्ती से जरा आगे बढ़ गये ।
उसने भी इन्कार नहीं किया ।
वह संतुष्ट थी । आज बहुत दिनों बाद वह सोई थी ।

कान्ता राॅय
भोपाल

मजबूत छोरी/लघुकथा


" बैल नहीं तो क्या , खेती ना होगी ! लुगाई तो है ना तेरी और मेरी ,चल जोत दें दोनों को हल मे! "
" माँ को भी ? "
" हाँ , तेरी माँ को भी ! "
" सुनो जी , अब मुझसे ना हो रहा है ये हल पकडना !"
" बहाने बाजी ना कर बिननी , बस दो चक्कर और ..."
" ओ देख बापू ,ये तो दो चक्कर में ही ढेर हो गई ।
" ओ जोगिंदर , मै माँ हूँ तेरी ,मेरी तो सुन ,वो सच में नहीं जुत पायेगी ।"
" मर जाये तो ही ठीक , इतनी कमजोर बिननी हमें ना पालना जोगिंदर की माई । "
" अरे ,दौड़ो रे ,ये तो ठंडी हो गई ।"
" क्या कहा , ठंडी हो गई ! चल जान छूटी ! अब किसन सिंह की छोरी लावेंगे अपने बेटे के लिए ,सुना है बडी मजबूत छोरी है काम काज में ! "

कान्ता राॅय
भोपाल

मेंटर (लघुकथा )


बडी़ तेज और रूखी आवाज थी उनकी ,वह अंदर तक काँप गई । सिर झुकाये खड़ी रही बस !
" सुगंधा जी , इतना समझाया लेकिन आप .... ! निकलिये यहाँ से , यह आपके वश की बात नहीं ।"
" कर लूंगी सर जी ,बस एक चाँस और ।"
" ओके , लेकिन यह आखिरी चाँस है । अब अगर लक्ष्य से दूर हुए तो आपकी विदाई यहाँ से तय है । "
" ओके सर जी , बस एक आखिरी चाँस ।" और वह सीटी बजते ही दौड़ लगा दी । भूल गई आगे - पीछे सब , बस लक्ष्य तक पहुँचना था नहीं तो विदाई ... "
अचानक जोरदार तालियों की गड़गड़ाहट से मैदान गूँज उठा ।
" देखा ना मेरे डंडे का असर ! " सर जी सामने खडे़ मुस्कुरा रहे थे ।


कान्ता राॅय
भोपाल

                   

कैरियर की कीमत /लघुकथा


" ये क्याsss !!! " दिल की धड़कन जैसे रूक गई थी ।
केफिटेरिया में लगी बडी सी स्क्रीन पर उसके पसंदीदा खिलाड़ी अवि अत्रे के सन्यास की खबर जैसे ही फ्लैश हुई कि हाथों से फाईल फिसल कर गिर पड़ी । अकचकाती हुई कुछ पल तक देखती ही रह गई । होश आया तो वह .....!
कीर्ति के शिखर पर बैठे हुए जब इस खिलाड़ी को सन्यास लेने में पल भर नहीं सोचना पड़ा तो वह , तुच्छ सी इस कैरियर के लिए अपनी दुधमुंही को मातृत्व से वंचित कर , उसे दिन भर के लिए उस झूले घर में छोड़ आई है ?
" मेरी बच्ची झूलाघर में परवरिश पायेगी ...... ? नहीं , बिलकुल नहीं ! " वह बुदबुदा उठी ।
अगले ही पल नीचे गिरे फाईलों को उठाती हुई वह अपने दृढ़ निश्चय पर पहुँच चुकी थी ।

कान्ता राॅय
भोपाल

बेरोजगारी / लघुकथा


कमरे में घुसते हुए वह अपनी चाल को संतुलित कर रहा था ,पर बैठते हुए थोडा़ लड़खड़ा गया ।
" आज इतनी देर कैसे कर दी आपने , कहाँ रह गये थे , खाना लगा दूँ ? " बाहर आॅफिस , घर में बेरोजगार पति , दोनों को ही काँच के बर्तन के समान संभालने की जिम्मेदारी भी वह बखूबी निभा रही थी कि आज ऐसे ....!
नजदीक जाकर गौर से देखी तो उनकी आँखें लाल हो रही थी । अचानक वह सोफे पर ही लुढ़क गया । एक पल के लिए उसकी धड़कन जैसे रूक गई ।
" क्या आपने ड्रग लिया है ...? "
" हाँ " अधनींदे ही वह लड़खड़ाती आवाज में जबाव दिया ।
" लेकिन क्यों , आपको किस बात का गम , मै तो हूँ ना सब करने के लिए ! "
" इसलिए तो ...! तुम नहीं समझोगी कामयाब पत्नी के नाकामयाब पति का दर्द ....." कहते हुए फिर से एक ओर लुढ़क गया ।


कान्ता राॅय
भोपाल

भरोसा तो है पर.../लघुकथा


होटल के कमरे में बुलाया जाना ....! कुछ तो खटका सा लगा था , लेकिन पूर्वाग्रहों के कारण हाथ आये चाँस को मिस करना नहीं चाहती थी ।
" क्या मै सचमुच सौभाग्यशाली हूँ " पता नहीं क्यूं , उनकी बातों पर विश्वास करने का मन हो आया । होटल की सीढ़ियां चढ़ते हुए मन में द्वंद जारी था ।
शहर में अगले हफ्ते से इनकी शुटिंग शुरू हो रही है , भैया भी कह रहे थे।
काॅलेज कैम्पस में उन्होंने कुछ अजब ही स्वर में पूछा था कि, --" आपको हमारी टीम पर भरोसा तो है ना ? "
" जी सर ,पूरा भरोसा है ,लेकिन इतने लोगों में सिर्फ मुझे ही ......"
" आप का चेहरा सुन्दर और फोटोजेनिक है । हम एक नेचुरल चार्म ढूंढते है चेहरे के अंदर और वो आपमें गजब का है । " उनकी आँख चमक गयी थी ।
" जी "
" याद रखियेगा , शाम को कमरा नम्बर २०६ "
तन्द्रा सीधे कमरा नम्बर २०६ के पास जाकर ही टूटी । बडी़ हिम्मत करके उसने दरवाजे पर नाॅक किया ।
दरवाजा उन्होंने ही खोला था । अंदर ठहाकों की आवाज गुँज रही थी व एक अजीब सी गंध आ रही थी ।
" अरे ,नताशा जी , बडी देर कर दी आपने । कई लोग बेताबी से इंतज़ार कर रहे है आपका । "
" सर ,मेरे भाईसाहब भी आप जैसे कलाकारों से मिलने के लिए बडे़ उत्सुक हो मेरे साथ ही आये है , आईये ना भैया ! "
" अरे , बृजमोहन....साहब... आप ...! " आवाज हलक में ही अटक गई ।

कान्ता राॅय
भोपाल

जीत के मोहरे /लघुकथा


" वकील साहब , आज तो फैसला हो जायेगा ना ? "
" अभी कुछ कहा नहीं जा सकता है । "
" आप तो शहर के नामचीन वकील है और हर पेशी के १० हजार रूपये केस जितवाने का कहकर ही लिए है । तीन साल की लड़ाई और आज फैसले का दिन , हमें इंसाफ की बडी़ आस है । " -- इंसाफ महंगी सर्द सी , मन की सुलगन को कहीं सर्द सी जमा रही थी ।
" विपक्ष की दावेदारी मजबूत है ! "
"लेकिन हमारा सबूत तो बहुत मजबूत है ! " वे उद्वेग में बोल पड़े ।
फैसला हो चुका था ।
" चल बेटा , पाना और खोना सब हो गया । " -- बेचारगी ने चेहरे की रेखाएँ तीखी कर दी थी ।
सुजाता पिता को थामे हुए कोर्ट से लड़खड़ाती कदमों से बाहर निकल रही थी कि अपने पीछे से आती ठहाकों की आवाज से ठिठक गयी ।
" आप तो हार कर भी जीत के मोहरे साबित हुए है आज ! चलिए , आपके नए घर में जश्न मनाते है। " पक्ष - विपक्ष पेशेवर एकाकार हो रहे थे ।

कान्ता राॅय
भोपाल

अंधेरों का वजूद/ लघुकथा


सहसा अंतरव्यथा से जूझती हुई सिसकियों ने दम तोड़ ,घुटने टेक दिये । फैसला कायम हो चुका था ।
काले कोट वाले वजीर ने गुनाहों के कीचड़ में सने हुए बादशाह को , सूर्य सा दैदीप्यमान बना दिया था। गुनाह बेदाग़ बरी हो अट्टाहास करता हुआ बाहर की तरफ एक और बाजी खेलने को विदा हुआ ।
इधर काले कोट वाला वजीर अपने जेब की गहराई नाप रहा था।
और उधर अंधी के आँखों पर चढी काली पट्टी ने अंधेरों का वजूद अंततः कायम रखा. तराजू फिर जरा सा डोल कर रह गया ।

कान्ता रॉय
भोपाल

सिगरेट /लघुकथा


शादी के पहले उसे सिगरेट पीने वालों पर गुस्सा आता था । काॅलेज जाते वक्त पब्लिक बस में भी बगल में कोई बंदा सिगरेट पीता मिल जाता तो उसे वहां से उठा कर ही दम लेती थी ।
बरसों बीते, पति के सिगरेट पीने की आदत उसके लाख जतन पर भी न छूट पायी और जाने कब कैसे उसे भी धुँए की आदी बना गई । 
सदा अपने लिए एकांत तलाशने वाली को आज सास ने सिगरेट पीते पकड़ लिया है । घर में कोहराम जारी है ।

कान्ता राॅय
भोपाल

नशे से मुक्ति /लघुकथा


" मम्मी , ये शोर किस बात का मचा रखा है आपने ? "
" यह देख तेरी कुलक्ष्णी बीवी को , मैने इसे अभी रंगे हाथों पकड़ा है । "
" रंगे हाथों ..... मतलब क्या है आपका ? "
" कुलक्ष्णी कमरे में छिप कर सिगरेट पी रही थी , मेरे कुल की इज्ज़त का सत्यानाश कर दिया इसने ...."
" क्या ? रमा तुम ..... ! " वह धम्म से कुर्सी पर गिर पड़ा । उसके सिगरेट की लत इस तरह संक्रमित होगी कि ...... ओह !
" रमा , मै तुम्हारा दोषी हूँ , आओ दोनों मिलकर इस नशे से मुक्त होने का प्रयत्न करते है । "

कान्ता राॅय
भोपाल

साँसों का कैदी/लघुकथा


दरवाजे पर हल्के से हाथ रखते ही खुल चुका था । वहीं जूते उतार कर कमरे में आ , फाईल को साईड टेबल पर रख, बिस्तर पर युँ ही लुढ़क गया ।
माँ के आने की आहट हुई । धीरे से वह कमरे में आई , सिरहाने आकर , माथे पर अंगुलियाँ फेर , वह वापस चली गई । आँखों के बंद होने के बावजूद उसने माँ की आँखों में छलछला आये आँसूओं को महसूस कर लिया था । जाते वक्त माँ , लाईट का स्विच आॅफ करती हुई गई थी । जाने कुछ सोच कर पंखे की स्पीड भी बढ़ा गई । 
बंद रौशनी ही अब उसको सुहाती थी । माँ को यह मालूम हो चला था शायद ।
प्रतिदिन सुबह तैयार हो, हाथ में उच्च डिग्रियों से लैस फाईल को संभाले , आॅफिस दर आॅफिस भटकना , जैसे एक नियति बन गई थी ।
तिरस्कृत नजरों के प्रतिबिंब मन - मष्तिष्क में गतिशील हो उठे । ऐसे में ही कब नींद आ गई पता ही नहीं चला । अचानक करवट बदलते हुए खिड़की से आते धुँधले प्रकाश में उसकी आँखें खुल गई । पल भर में ही वह फिर से सुबह के होने से आशंकित हो उठा ।

कान्ता राॅय
भोपाल

काँपते रिश्ते (लघुकथा )


" मम्मी ,आप ये कैसी बातें कर रही है ? " सुजल बिलख सा उठा था ।
" परिवार के साथ भोजन " करने का आमंत्रण का यह रूप स्तब्ध कर देने वाला था ।
" मैने साफ - साफ कह दिया , मुझे एक पारम्परिक बहू ही चाहिए , मुझे उसकी पद प्रतिष्ठा को लेकर चाटना नहीं है " माँ अपनी बात पर पूरी तरह आश्वस्त थी ।
सुजल और माँ के बीच उसे वक्त ने कैसे फँसा दिया था । वह बेबस हो भीतर से थोड़ी असुरक्षित हो उठी । किसी को उसकी चाहत की फिक्र ही नहीं ।
" माँ को मै अबतक सिर्फ सुजल के दोस्त के रूप में ही पसंद रही थी , दोस्ती के आगे की परिणिति उन्हें स्वीकार नहीं । " सुजल अब उसे दूर आसमान में बदलियों में छुपता हुआ धुँधलके चाँद सा प्रतीत हो रहा था ।
वह धीरे से उठ खड़ी हुई और पर्स को कंधे पर सम्भाल माँ के पैरों पर झुकी , माँ ने अकचका कर पैर समेट लिए ।
आखिरी बार सुजल को नजर भर कर उसने देखना चाहा लेकिन माँ की उपस्थिति ....., झेंपी मुस्कान के साथ बाहर की तरफ निकलते हुए मन ग्लानि में डूबा हुआ था ।
इन परिस्थितियों के लिए वह कभी तैयार नहीं थी । मल्टीमीडिया में सी . ई . ओ . के पद को बखूबी सम्भालने वाली राजश्री मेहता को प्यार करना बहुत महंगा पड़ गया था ।

कान्ता राॅय
भोपाल