गुरुवार, 12 नवंबर 2015

लघुकथा , समीक्षक , नवनिर्माण और चिंतन / आलेख

लघुकथा में नवनिर्माण का सम्पूर्ण आधार लघुकथाकार के एक बेहतरीन समीक्षक होने में ही छिपा है।
लघुकथा में समीक्षा का महत्व कितना अहम है यह जानना आज के दौड़ में एक गहन चिंतन का विषय है। वर्तमान में यह एक बहुत अच्छी बात उभरकर आई है की लोगों में लघुकथा के प्रति उत्सुकता है। लघुकथा पढ़ते हुए पाठक स्वयं भी कलम चलाने के लिए उत्सुक हो उठता है। ऐसे में उनको सही दिशा मिलना बेहद जरूरी है और ये दिशा का निर्देशन कौन करे ? इस प्रश्न का उत्तर यही है कि एक लघुकथाकार से बेहतर भला कौन दूसरा हो सकता है। लेकिन नवलेखकों को इस विधा में तकनीकी तौर पर दुरुस्त करके उनको इस विधा में साधना एक चुनौती भरा रास्ता है। मान -अपमान का जोखिम भी है क्यूंकि बहुत कम लोग ही अपनी आलोचनाओं को बर्दास्त कर पाते हैं। लघुकथा के समीक्षक द्वारा ही ये कार्य प्रतिपादित होना सही है।
समीक्षकों के लिए वर्तमान में चुनौतियां बहुत अधिक है।
समीक्षक भी कई प्रकार के होते है। आलोचना , समालोचना , समीक्षा तीनों शब्द किसी वस्तु ,कार्य या कृति के प्रति सम्यक दर्शन के अर्थ में प्रयुक्त होते है । सैद्धांतिक आलोचना सदा से होती आई है , लेकिन व्यवहारिक समालोचना का क्षेत्र अधिक पुराना नहीं हैै ।
प्रतिभा की दो श्रेणियाँ मानी गई है -- कारयित्री और भावयित्री । कारयित्री प्रतिभा रचनाकार का आधार है तो भावयित्री रचना का आस्वाद लेने वाला भावक है यानि वह व्यक्ति जो रचना का अवगाहन करके उसको सामान्य पाठक तक पहुँचाता है । रचनाओं के गहन अध्ययन के उपरांत ही एक उत्तम समीक्षा रचित होती है । उत्तम आलोचना को भी रचना ही माना गया हैै , क्योंकि वह रचना की पुनर्रचना ही है ।
आलोचक को ही भावक कहा गया है। उनके अनुसार इसकी चार श्रेणीयाँ मानी है -- अरोचक , सतृणभ्यवहारी , मत्सरी और तत्त्वाभिनिवेशी ।
अरोचक को किसी की अच्छी रचना भी पसंद नहीं आती , सतृणभ्यवहारी सभी रचनाओं ( अच्छी या बूरी )की प्रशंसा करते है यानि टेक सेर भाजी टेक सेर खाजा । अच्छा बुरा सब एक सामान। इन आलोचकों से रचनाकार को बचने की जरूरत है ।
मत्सरी ईर्ष्यावश रचना की केवल बुराई ही करते है और यही बुराई लेखकों को हतोत्साह करती है और कई बार लेखक लेखन से विमुख भी हो जाता है ।
सही अर्थों में तत्त्वाभिनिवेशी आलोचक ही न्यायपूर्ण आलोचना कर सकते है , क्योंकि वे रचना की तह तक पहुँच कर कथ्य और शिल्प की सही पडताल और परख करते है । रचना और रचनाकार के प्रति उनकी सम्यक् दृष्टि ही तात्त्विक विश्लेषण में सफल हो पाती है । सही आलोचनात्मक समीक्षा ही लेखन में प्राण वायु संचारित करती है ।
आलोचक के लिए विषय के प्रति ज्ञान का होना बेहद जरूरी है । बिना तकनीकी ज्ञान के सही आलोचना संभव ही नहीं है ।
पक्षपात की मानसिकता से ग्रस्त व्यक्ति कभी सही समीक्षा नहीं कर सकता है । हिन्दी साहित्य में आलोचना का इतिहास बहुत पुराना नहीं है
लघुकथा क्षेत्र में कभी भी अच्छा आलोचक नहीं पनप पाया है । आपसी मनभेद और मतभेद सदा से ही प्रभावी रहा है आलोचकों पर ।
जब लघुकथा लेखकों ने समीक्षा की बाग़डोर संभाली तो उनके पास भरा पूरा मैदान था । जिधर चाहे दौड़ें जैसे चाहे दौड़े । संयमित नहीं रहा है कुछ भी ,इसका खामियाजा आज के नवलेखकों को उठाना पड़ रहा हैै ।
मानकों को तय करने के बावजूद स्वंय ही मानकों से इतर चलने को उतारू है ।
लघुकथा निरंतर विकास के क्रमवार बढता ही रहा । शुरू के दिनों के लेखन और आज वर्तमान के लेखन में बहुत फर्क आया है । अब लघुकथा अपनी बाल्यकाल से निकल कर यौवनकाल में प्रवेश की है अगर यह कहे तो जरा भी अतिशयोक्ति नहीं है ।
लगभग बीस -पच्चीस साल पहले की कहानीनुमा लघुकथाओं का दौर गुजर कर संक्षिप्तता के नये आयाम कायम करते हुए सारगर्भित रचनाओं के दौड़ में आ खड़ा हुआ है ।
हमारे अग्रजो ने एक लम्बे संघर्ष के काल को जिया है । आदरणीय बलराम अग्रवाल जी , मधुदीप गुप्ता जी , सतीश पुष्करणा जी , रामेश्वर कम्बोज जी , सुकेश साहनी जी , सुभाष नीरव जी ,श्यामसुन्दर अग्रवाल जी , बलराम जी , जगदीश कश्यप जी ,शंकर पुणतांबेकर जी ,रमेश बत्रा जी , डा रामकुमार घोटड जी इत्यादि और भी बहुत सारे वरिष्ठ रचनाकारों ने इस विधा पर सालों से लगातार काम करते रहे है । आज हम हिन्दी साहित्य में लघुकथा संदर्भ में कहीं कुछ भी निर्माण देखते है तो नींव में बस इन्हीं श्रेष्ठ साहित्यकारों का योगदान देखते है ।
अनवरत लघुकथा लेखन ही लघुकथा के आज तक के विकास यात्रा को जारी रखे हुए है । साहित्य का विकास सार्थक लेखन से ही संभव है ।
और सार्थक लेखन के लिए तकनीक सम्बन्धी ज्ञान का होना बेहद जरूरी है ।
मेरा प्रयास इस क्षेत्र में किसी व्यक्ति विशेष के लिए नहीं वरन् हिंदी साहित्य में लघुकथा विकास यात्रा को जारी रखने के तहत ही है । सादर।
कान्ता रॉय
भोपाल

कोई टिप्पणी नहीं :

एक टिप्पणी भेजें