गुरुवार, 12 नवंबर 2015

थरथराती स्नेह की बाती /लघुकथा


वह टूटे हुए खिलौने ,चाभी से चलने वाली कार ,कानी सी वो गुड़िया , सब को घंटो निहारती रहती थी। झबले ,जुराबों और उसके स्कूल की ड्रेस बार -बार तह करके रखती रहती थी। दिन में कई बार वह पलट -पलट कर यही सब दुहराती रहती थी।
अरसा गुजर गया बेटे की राह देखते हुए । आज उसकी चिट्ठी आई । पढते ही शरीर में कम्पन के साथ स्नेह की बाती भी थरथरा उठी थी । काँपते हुए हाथ में चिट्ठी भी सिसक कर मानो आंसुओं में तर - बतर हो गयी ।
विदेश में कई वर्षोँ पहले पढ़ने गये इकलौते बेटे ने, उसके वापसी का इंतज़ार करती माँ को, विदेश में अपने स्थायी वास की सूचना देते हुए ,रूपये की फिक्र ना करने की सान्त्वना भी संग में भेज दी थी । उसे यकीन था कि यह सान्त्वना माँ की सब पीड़ा को सम्भाल लेगी ।
कान्ता रॉय
भोपाल

कोई टिप्पणी नहीं :

एक टिप्पणी भेजें