गुरुवार, 12 नवंबर 2015

मेंटर (लघुकथा )


बडी़ तेज और रूखी आवाज थी उनकी ,वह अंदर तक काँप गई । सिर झुकाये खड़ी रही बस !
" सुगंधा जी , इतना समझाया लेकिन आप .... ! निकलिये यहाँ से , यह आपके वश की बात नहीं ।"
" कर लूंगी सर जी ,बस एक चाँस और ।"
" ओके , लेकिन यह आखिरी चाँस है । अब अगर लक्ष्य से दूर हुए तो आपकी विदाई यहाँ से तय है । "
" ओके सर जी , बस एक आखिरी चाँस ।" और वह सीटी बजते ही दौड़ लगा दी । भूल गई आगे - पीछे सब , बस लक्ष्य तक पहुँचना था नहीं तो विदाई ... "
अचानक जोरदार तालियों की गड़गड़ाहट से मैदान गूँज उठा ।
" देखा ना मेरे डंडे का असर ! " सर जी सामने खडे़ मुस्कुरा रहे थे ।


कान्ता राॅय
भोपाल

                   

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