गुरुवार, 12 नवंबर 2015

काँपते रिश्ते (लघुकथा )


" मम्मी ,आप ये कैसी बातें कर रही है ? " सुजल बिलख सा उठा था ।
" परिवार के साथ भोजन " करने का आमंत्रण का यह रूप स्तब्ध कर देने वाला था ।
" मैने साफ - साफ कह दिया , मुझे एक पारम्परिक बहू ही चाहिए , मुझे उसकी पद प्रतिष्ठा को लेकर चाटना नहीं है " माँ अपनी बात पर पूरी तरह आश्वस्त थी ।
सुजल और माँ के बीच उसे वक्त ने कैसे फँसा दिया था । वह बेबस हो भीतर से थोड़ी असुरक्षित हो उठी । किसी को उसकी चाहत की फिक्र ही नहीं ।
" माँ को मै अबतक सिर्फ सुजल के दोस्त के रूप में ही पसंद रही थी , दोस्ती के आगे की परिणिति उन्हें स्वीकार नहीं । " सुजल अब उसे दूर आसमान में बदलियों में छुपता हुआ धुँधलके चाँद सा प्रतीत हो रहा था ।
वह धीरे से उठ खड़ी हुई और पर्स को कंधे पर सम्भाल माँ के पैरों पर झुकी , माँ ने अकचका कर पैर समेट लिए ।
आखिरी बार सुजल को नजर भर कर उसने देखना चाहा लेकिन माँ की उपस्थिति ....., झेंपी मुस्कान के साथ बाहर की तरफ निकलते हुए मन ग्लानि में डूबा हुआ था ।
इन परिस्थितियों के लिए वह कभी तैयार नहीं थी । मल्टीमीडिया में सी . ई . ओ . के पद को बखूबी सम्भालने वाली राजश्री मेहता को प्यार करना बहुत महंगा पड़ गया था ।

कान्ता राॅय
भोपाल

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