गुरुवार, 12 नवंबर 2015

जीत के मोहरे /लघुकथा


" वकील साहब , आज तो फैसला हो जायेगा ना ? "
" अभी कुछ कहा नहीं जा सकता है । "
" आप तो शहर के नामचीन वकील है और हर पेशी के १० हजार रूपये केस जितवाने का कहकर ही लिए है । तीन साल की लड़ाई और आज फैसले का दिन , हमें इंसाफ की बडी़ आस है । " -- इंसाफ महंगी सर्द सी , मन की सुलगन को कहीं सर्द सी जमा रही थी ।
" विपक्ष की दावेदारी मजबूत है ! "
"लेकिन हमारा सबूत तो बहुत मजबूत है ! " वे उद्वेग में बोल पड़े ।
फैसला हो चुका था ।
" चल बेटा , पाना और खोना सब हो गया । " -- बेचारगी ने चेहरे की रेखाएँ तीखी कर दी थी ।
सुजाता पिता को थामे हुए कोर्ट से लड़खड़ाती कदमों से बाहर निकल रही थी कि अपने पीछे से आती ठहाकों की आवाज से ठिठक गयी ।
" आप तो हार कर भी जीत के मोहरे साबित हुए है आज ! चलिए , आपके नए घर में जश्न मनाते है। " पक्ष - विपक्ष पेशेवर एकाकार हो रहे थे ।

कान्ता राॅय
भोपाल

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