गुरुवार, 12 नवंबर 2015

साँसों का कैदी/लघुकथा


दरवाजे पर हल्के से हाथ रखते ही खुल चुका था । वहीं जूते उतार कर कमरे में आ , फाईल को साईड टेबल पर रख, बिस्तर पर युँ ही लुढ़क गया ।
माँ के आने की आहट हुई । धीरे से वह कमरे में आई , सिरहाने आकर , माथे पर अंगुलियाँ फेर , वह वापस चली गई । आँखों के बंद होने के बावजूद उसने माँ की आँखों में छलछला आये आँसूओं को महसूस कर लिया था । जाते वक्त माँ , लाईट का स्विच आॅफ करती हुई गई थी । जाने कुछ सोच कर पंखे की स्पीड भी बढ़ा गई । 
बंद रौशनी ही अब उसको सुहाती थी । माँ को यह मालूम हो चला था शायद ।
प्रतिदिन सुबह तैयार हो, हाथ में उच्च डिग्रियों से लैस फाईल को संभाले , आॅफिस दर आॅफिस भटकना , जैसे एक नियति बन गई थी ।
तिरस्कृत नजरों के प्रतिबिंब मन - मष्तिष्क में गतिशील हो उठे । ऐसे में ही कब नींद आ गई पता ही नहीं चला । अचानक करवट बदलते हुए खिड़की से आते धुँधले प्रकाश में उसकी आँखें खुल गई । पल भर में ही वह फिर से सुबह के होने से आशंकित हो उठा ।

कान्ता राॅय
भोपाल

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